रविवार, 25 नवंबर 2012

अंतर्विरोधी निष्पत्तियां


अमरनाथ 
रामचंद्र राय की टिप्पणी ‘हिंदी और मेड़बंदी’ (11 नवंबर) शंभुनाथ और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के लेखों पर प्रतिक्रिया स्वरूप छपी है। तथाकथित तटस्थ विचारधारा वाले अन्य लेखकों की तरह राय को भी साहित्य में मेड़बंदी से एतराज है। उन्होंने लिखा है, ‘जब रामविलास शर्मा ने हिंदी को रूढ़ि से निकाल कर अग्रगामी बनाया तो आलोचकों ने उन्हें मार्क्सवादी आलोचक कहना शुरू कर दिया। चूंकि शर्मा के पास आधुनिकताबोध था, उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का पठन-पाठन किया था। उन्होंने हिंदी को आधुनिकताबोध के साथ तराशने का काम किया।’यानी, आधुनिकताबोध उसी के पास हो सकता है जो अंग्रेजी का पठन-पाठन करता है। क्या अंग्रेजी के आने के पहले इस देश के विचारकों में आधुनिकताबोध था ही नहीं? कुछ लोग तो कबीर को भी आधुनिकताबोध से भरा-पूरा मानते हैं। रामविलास शर्मा भक्तिकाल को ‘लोकजागरण काल’ कहते हैं। क्या बिना आधुनिकताबोध के लोकजागरण संभव है? लेखक को शिकायत है कि रामविलास शर्मा को मार्क्सवादी क्यों कहा गया? वे कहते हैं कि, ‘रामविलास शर्मा ने हिंदी साहित्य का विवेचन आधुनिक फलक पर किया, पर इसका पुरस्कार उन्हें मार्क्सवादी आलोचक के रूप में मिला।’ मानो मार्क्सवादी होना पाप है। शायद लेखक को जानकारी नहीं कि रामविलास शर्मा ने अपने को अनेक बार मार्क्सवादी कहा और मार्क्सवाद के प्रति उनकी यह निष्ठा उनमें अंत तक बनी रही। उन्होंने मार्क्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘पूंजी’ के दूसरे खंड, ‘माओ त्से-तुंग ग्रंथावली’ के प्रथम खंड और सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास का अनुवाद किया है। इसके अलावा ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ (दो खंड), ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’, ‘शेली और मार्क्स’, ‘आज की दुनिया और लेनिन’, ‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’, ‘पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध- थलेस से मार्क्स तक’ आदि उनकी पुस्तकें हैं। लेखक ने अगर रामविलास शर्मा की कोई भी किताब ठीक से पढ़ी होती तो उन्हें कहीं न कहीं उनकी आत्मस्वीकृति जरूर मिल गई होती। उनकी पुस्तक ‘भारत की भाषा समस्या’ के फ्लैप पर उनके परिचय में एक वाक्य है: ‘देशभक्ति तथा मार्क्सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना का केंद्र बिंदु है।’ आखिर रामविलास शर्मा की सहमति से ही पुस्तक के फ्लैप पर यह वाक्य रखा गया होगा। उनकी स्वीकृति को कैसे नकारेंगे आप? मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक दर्शन, एक जीवनदृष्टि है। इसे वैज्ञानिक समाजवाद भी कहा गया है। इसमें सिर्फ मार्क्स के विचार नहीं, बल्कि इस दर्शन को समृद्ध करने वालों में मार्क्स से पहले के दार्शनिक हीगेल, मार्क्स के सहयोगी और मित्र फे्रडरिक एंगेल्स, उस दर्शन के प्रथम प्रयोक्ता लेनिन, स्तालिन और चीन के माओ त्से-तुंग भी शामिल हैं। नामवर सिंह ने लिखा है: ‘निराला की साहित्य साधना के दोनों भागों में डॉ रामविलास शर्मा ने एक कवि की व्यावहारिक आलोचना के माध्यम से जो मूल सिद्धांत स्थापित किए हैं वे मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के मानदंडों और मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का सर्वोत्तम निरूपण भी है।’ रामविलास शर्मा 1949 से 1953 तक प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री थे। राय साहब को पता होना चाहिए कि प्रगतिशील लेखक संघ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा लेखकों का सबसे बड़ा संगठन था और आज भी वजूद में है। रामविलास शर्मा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी रहे। राय को साहित्य में मेड़बंदी से एतराज है। उन्हें पता होना चाहिए कि दुनिया में जन्म लेने के साथ ही बच्चे को तरह-तरह की विचारधाराएं विरासत में मिलती हैं। वह उन्हीं

के बीच पलता-बढ़ता है। उसकी चेतना इसी समाज में निर्मित होती है। बाद में उनसे वैचारिक संघर्ष करते हुए ही वह अपनी अवधारणाएं बनाता और विकसित करता है। वह जीवन भर सीखता है। जिसके पास तनिक भी बुद्धि होगी और वह उसका इस्तेमाल करेगा तो वह समाज में फैले किसी न किसी विचारधारा से जुड़ेगा। मजबूती से जुड़ने पर किसी न किसी संगठन का हिस्सा बनेगा। संगठन से जुड़ना अपने विचार और दायित्व के प्रति ज्यादा निष्ठावान होना है। यह कमजोरी नहीं, मजबूती का लक्षण है। हां, हर सचेत और सक्रिय व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन होता रहता है। तटस्थता जैसी कोई वस्तु नहीं होती। रामचंद्र राय ने घोषणा की है कि, ‘हिंदी की अपनी संस्कृति नहीं है। इसका कारण है कि हिंदी न किसी प्रदेश या जाति की अपनी बोली है, न होगी।’ उन्हें पता होना चाहिए कि दुनिया की सभी भाषाएं किसी न किसी जाति की होती हैं। कोई भाषा किसी जाति की न हो, यह असंभव है। हिंदी भी ‘हिंदी जाति’ की भाषा है। यह अलग बात है कि हिंदी जाति के भीतर बंगाली, मराठी, तमिल आदि जातियों की तरह जातीय चेतना मजबूत नहीं है। यह दुनिया की सबसे बड़ी जातियों में से एक है, जो आज दस राज्यों में बांट दी गई है। इसीलिए इसका संतुलित विकास नहीं हो सका है। हिंदी जाति के पिछड़ेपन का यह मुख्य कारण है। रामविलास शर्मा आजीवन हिंदी जाति की अखिल भारतीय स्वीकृति के लिए संघर्ष करते रहे। राय साहब ने जिन लेखों की प्रतिक्रिया में लिखा है, उसका शीर्षक ही है, ‘हिंदी जाति के महानायक’। आश्चर्य है कि राय साहब ने उससे भी कोई सीख नहीं ली और हिंदी जाति के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया। समझ में नहीं आता कि उनका लेख रामविलास शर्मा के विचारों के समर्थन में है या विरोध में। इतना ही नहीं, उन्होंने लिखा है कि ‘हिंदी भाषी प्रदेशों की अपनी अलग-अलग संस्कृति है।’ यानी एक ओर ‘हिंदी भाषी प्रदेश’ कह कर उनकी भाषाई एकता को स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर उनमें सांस्कृतिक भिन्नता भी ढूंढ़ते हैं। इस तरह तो एक गांव क्या, एक ही परिवार में सदस्यों के बीच खान-पान, रहन-सहन आदि के स्तर पर सांस्कृतिक भिन्नता ढूंढ़ी जा सकती है। सवाल है कि आपका उद्देश्य क्या है? भिन्नता ढूंढ़ना या समानता के सूत्र तलाशना? वे लिखते हैं, ‘हिंदी खड़ी बोली का विकास अरबी-फारसी के मिश्रण से हुआ है।’ भाषा विज्ञान की जानकारी रखने वाला व्यक्ति जानता है कि किसी भाषा का विकास किन्हीं दो भाषाओं के मिश्रण से नहीं होता। रामविलास शर्मा ने कई जगह और खास तौर पर हिंदी-उर्दू के रिश्ते पर बात करते हुए इसकी विस्तार से चर्चा की है।  रामविलास शर्मा पर कलम चलाने से पहले उनकी कुछ कृतियों को जरूर उलट-पलट लेनी चाहिए। सबसे आपत्तिजनक बात है कि ‘हिंदी के अध्यापक आधुनिक भारतीय भाषा हिंदी तो पढ़ाते हैं, पर उनमें आधुनिकताबोध नहीं दिखता।’ लेखक को हिंदी के किसी भी अध्यापक में आधुनिकताबोध नहीं दिखाई देता। अब इस पर क्या कहा जाए? जाहिर है, उसने सबको जांचने-परखने के बाद ही ऐसा सूत्रवाक्य कहा होगा। निश्चित रूप से उसके पास दिव्यदृष्टि होगी। साधारण आंखों और मेधा से हजारों-लाखों हिंदी अध्यापकों की जांच कैसे हो सकती है? उसे रामविलास शर्मा में आधुनिकताबोध इसलिए दिखाई देता है, क्योंकि वे हिंदी के लेखक भले थे, अध्यापक अंग्रेजी के थे।

भाषा और बाजारवाद


ऋषिकेश राय 
स्वतंत्रता संग्राम के दौर में हिंदी औपनिवेशिक सांस्कृतिक दमन के प्रतिकार का प्रतीक बन गई थी। भारत की बहुजातीय राष्ट्रीयता की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में उसका भारतीय भाषाओं से सौहार्दपूर्ण रिश्ता कायम हो रहा था। हिंदी की जनपदीय बोलियों ने भी खड़ी बोली को अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम मान कर अपना-अपना स्वत्व उसको अर्पित किया था। राष्ट्रभाषा-राजभाषा के रूप में उसकी परिकल्पना अखिल भारतीय सामुदायिक चेतना की प्रतिनिधि संवाहक के रूप में की गई थी। उसके प्रचार-प्रसार की जरूरत का स्रोत इसी विचार में निहित था। पर आज के भूमंडलीकृत दौर में उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता को क्या एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए? क्या बाजार प्रेरित विस्तार और प्रयोक्ताओं की तादाद में इजाफा उसके विकास का प्रतिमान माना जा सकता है? इन्हीं से हिंदी की दिशा और अभिवृद्धि के सवाल जुड़े हैं। किसी भी भाषा का अपने जातीय क्षेत्र से बाहर प्रयोग राजनीतिक, सांस्कृतिक या वाणिज्यिक कारणों से संभव होता है। जातीय भाषा के रूप में प्रयोगकर्ताओं के अलावा एक बड़ी संख्या उसका प्रयोग द्वितीय भाषा या संपर्क भाषा के रूप में करने लगती है। पर यहां यह तथ्य भी ध्यान में रखना जरूरी है कि अपने भूगोल से बाहर कोई भी भाषा, प्रकाशित-प्रसारित रूप में किसी दूसरे जातीय क्षेत्र के मौलिक भाषाई व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन पाती। किसी भी जातीय क्षेत्र का मौलिक और सर्जनात्मक चिंतन उसकी अपनी भाषा के माध्यम से ही साकार हो पाता है। औपनिवेशिकता के कारण तीसरी दुनिया के देशों में भाषाई निजता और सांस्कृतिक आत्मचेतना का क्षय इसका जीता-जागता प्रमाण है।औपनिवेशिक भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रसार अमेरिका पर ब्रिटिश प्रभुत्व से शुरू होता है। यह अवधि यूरोप में उग्र राष्ट्रवाद की है। इसी चेतना से अंग्रेजी का प्रचार किया गया, जिसे एक समृद्ध, तकनीक सुलभ भाषा द्वारा पिछड़े हुए शेष संसार के सभ्यताकरण के रूप में व्याख्यायित किया गया। आज भी अंग्रेजी की पहचान तकनीकी श्रेष्ठता और आधुनिक सभ्यता के स्रोत के रूप में अपरिहार्य स्थिति की तरह मौजूद है। वैश्वीकरण के इस सघन और उत्कट समय में वह मीडिया की एकमात्र वर्चस्वशाली भाषा और उच्च तकनीकी विकास का स्रोत बनने के अलावा आधुनिकता के मूल्यों की वाहक भी मानी जा रही है। सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा और बहुराष्ट्रीय निगमों में रोजगार की कुंजी के रूप में उसकी सबलता विश्वव्यापी है। मगर विकास के लिए अंग्रेजी की मुंहजोही और उधारी ने शेष दुनिया के जमीनी अंतर्विकास और देशज संवेदना के सम्मुख लगातार आत्मविहीन परमुखापेक्षिता का संकट खड़ा किया है। हिंदी प्रचार की आवश्यकता नवजागरण से उत्पन्न राष्ट्रवादी विचारधारा का कर्ममूलक परिणाम थी। महात्मा गांधी के प्रयासों ने इसे एक आंदोलन की शक्ल दी। हिंदी प्रसार का उद्देश्य पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति की श्रेष्ठता की धारणा का प्रतिरोध करना था। इस प्रतिरोध ने प्रतिक्रियास्वरूप परंपरावादी और शुद्धता के प्रति आग्रही दृष्टि को जन्म दिया, जिसे हमारे बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से ने विकल्प मान कर हाथोंहाथ ग्रहण किया। अभिजात चिंतन और वर्णवादी सोच वाले बौद्धिक वर्ग ने शुद्धतावादी ज्ञान के स्रोतों को अपनी अस्मिता का पर्याय मान लिया। इस वर्ग में अंग्रेजी दीक्षित लोगों की बहुलता थी। इनकी लाई आधुनिकता अंग्रेजी की छाया से बुरी तरह ग्रस्त थी। इसी का दुष्परिणाम था, हिंदी और उर्दू का सांप्रदायिक विभाजन। अट््ठारहवीं सदी की हिंदी और उन्नीसवीं सदी में गढ़ी गई भाषा में यह विभाजन साफ दिखाई दिया। हिंदी प्रसारक संस्थाओं ने भी संस्कृतोन्मुख हिंदी मॉडल को अपनाया और उसी का प्रचार किया। अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग द्वारा प्रचारित आधुनिकता पर भी अंग्रेजी राष्ट्रवादी

मानसिकता की गहरी छाप थी। उनकी इस भूमिका की जड़ें अंग्रेजों की उस हिंदी प्रचारवादी भूमिका में थीं, जिसका परिणाम हमारी जातीयता के विभाजन के रूप में सामने आया। महात्मा गांधी ने इस विभाजन को निरस्त करने के लिए नई भाषिक अंतर्वस्तु और मुहावरे का प्रस्ताव किया था। उनकी दृष्टि में देश की एकता और अखंडता का प्रश्न सर्वोपरि था। गांधीजी द्वारा प्रस्तावित ‘हिंदुस्तानी’ को बौद्धिक, अकादमिक और विज्ञान के क्षेत्र में रुचि रखने वाले और इसमें सक्रिय मध्यवर्ग का समर्थन नहीं हासिल हो पाया। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान में शुद्धतावादी रुझानों का जोर बना रहा। वास्तव में अपनी भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए परंपरागत ज्ञान स्रोतों को आधार रूप में अपनाना एक किस्म की मजबूरी भी थी। अंग्रेजी की पारिभाषिक शब्दावली का अनुवाद संस्कृत और फारसी की ज्ञान परंपरा के सहयोग से किया गया। इससे भाषा और शब्दावली अनुवाद की दुरूहता और अपरिचय के दुष्चक्र में फंसती गई। आजादी के बाद बदली हुई परिस्थितियों में हिंदी में अन्य आग्रहों ने भी घर करना शुरू किया। अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास और विस्तार से भाषा का एक बाजारोन्मुख रूप प्रचलित हुआ। दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में संस्कृतनिष्ठ भाषाई रूप का अकादमिक इस्तेमाल बढ़ता गया। इस दौर में हिंदी ने संस्कृतोन्मुखता के माध्यम से ज्ञानोदय से जुड़ने का प्रयास किया। एक हद तक इसमें सफलता भी मिली। आत्माराम और बीरबल साहनी जैसे प्रख्यात रसायन विज्ञानियों और वनस्पतिशास्त्रियों ने हिंदी के माध्यम से शोध और शिक्षण को आगे बढ़ाया। पर मौजूदा दौर के बाजारवादी भूमंडलीकरण में मीडिया भाषा गढ़ने का प्रमुख साधन बन   चुका है। उसकी गढ़ी हुई खिचड़ी भाषा स्रोतबहुलता से आक्रांत है। यह उथली और गंभीर संप्रेषण क्षमता से विपन्न भाषा है। इसकी भूमिका ज्ञानमूलक रूपों के विखंडन की अधिक है। बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भाषाओं की संप्रेषणीयता के ‘सूचनात्मक’ पहलू का विस्तार तो किया, पर इससे भाषाओं की ज्ञानमूलक संरचनाओं पर गंभीर खतरे भी मंडराने लगे हैं। मीडिया की बहुराष्ट्रीय संस्कृति ‘पापुलर’ के नाम पर एक मिश्रित भाषा को बढ़ा रही है, जिसने संस्कृति के सामने ‘क्रियोलाईजेशन’ का संकट खड़ा किया है। निस्संदेह, एक बड़े दर्शक और पाठक वर्ग के कारण हिंदी की पहुंच इस बाजार तक हुई है। पर इसे भाषाई विकास का प्रमाण मानना एक भ्रम है। मीडिया का बाजार अन्य भाषाओं की घुसपैठ के बावजूद नव-औपनिवेशिक मूल्यों का वाहक है। इस दुनिया में भाषा और संस्कृति की गुणवत्ता को जांचने की कसौटी अंग्रेजी है, जो अन्य भाषाओं पर इसे आयद करती है। यह एक तरह की आस्वादमूलक गुलामी है, जिसे अंग्रेजी की दुनिया ने हम पर लाद रखा है। इस बौद्धिक नवगुलामी से मुक्ति के लिए हिंदी को अपने उन सांस्कृतिक स्रोतों में लौटना होगा, जिसकी तरफ हम नवजागरण के दौर में बढ़ रहे थे। जनजागरण की अधूरी परियोजना को पूरा करने के लिए एक नई भाषा-चेतना की दरकार है, जो हमारी भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की अभिव्यक्ति की सामर्थ्य से भर सके। हिंदी क्षेत्र में ज्ञानोदय की संभावना इस नई भाषा-चेतना से गहराई से जुड़ी है। उत्तर-आधुनिक विमर्शों के नाम पर एकांगी पश्चिमोन्मुख विचारों के आधिपत्य की सैद्धांतिकी प्रभेद और ज्ञानमूलक विखंडन की प्रक्रिया को उपजा रहे हैं। इनका प्रतिरोध हमारी सुदृढ़ ज्ञानमीमांसीय और दार्शनिक परंपराओं की मदद से किया जा सकता है। क्लासिकी दौर में हिंदी के पास एक मूलगामी, तात्त्विक दर्शनधर्मी आधारभूमि थी। इसके पुनराविष्कार की आवश्यकता हमारे समग्र बौद्धिक उपक्रमों का सारतत्त्व है। विस्तारवादी मिथ्या प्रलोभनों की तुलना में चिंतन और ज्ञान की ठोस जमीन की तलाश ही हिंदी को ज्ञान और विचार की भाषा के रूप में रूपांतरित कर सकती है।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

ढाई चावल की खिचड़ी


                                                                                                                  ऋषिकेश राय 
बृजराज सिंह के लेख समझे हैं, न समझेंगे’ (15 जुलाई) में बोलियों की अस्मिता की बात तो बखूबी की गई है, पर इस क्रम में जातीय भाषा और बोलियों के अंतर्संबंध का सूत्र छूट गया है। हिंदी एक विशाल भूभाग की जातीय भाषा है, जिसकी निर्मिति में उसकी अंगभूत बोलियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। राष्ट्रीयता की परियोजना में जनपदीय बोलियों ने भी आधुनिक चेतना का वरण करते हुए अपनी धरोहर मानक हिंदी को सौंपी। इसी को सहेज कर हिंदी राष्ट्र-निर्माण के उद्देश्य में औपनिवेशिकता को चुनौती देने में सक्षम हुई थी। 
यह कहना कि हिंदी कभी हिंदी प्रदेश कहे जाने वाले भूभाग की भाषा नहीं रही, जातीय चेतना के निर्माण प्रक्रिया से अनभिज्ञता जाहिर करता है। अगर बोलियों के होने से उस प्रदेश की जातीय भाषा को उस भूभाग की भाषा नहीं माना जाएगा तो फिर बांग्ला बंगाल की, मराठी महाराष्ट्र की और तमिल तमिलनाडु की भाषा कैसे कही जा सकेंगी? इन प्रदेशों में भी सामंती जनपद रहे हैं और उनमें व्यवहार में आने वाली बोलियां भी। व्यापार-वाणिज्य और तकनीक की उन्नति से मानव समुदाय करीब आते हैं, साथ में उनकी बोली-बानी। संपर्क की आवश्यकता ही अंतर-जनपदीय संपर्क माध्यम के विकास का कारण होती है। 
बृजराज जी का यह कहना कि हिंदी, हिंदी क्षेत्र की जातीय चेतना की अभिव्यक्ति में समर्थ नहीं, इतिहास और वर्तमान के तथ्यों और साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रमाणों के बिल्कुल विपरीत है। अगर अवधी जनपदीय चेतना अवधी बोली और भोजपुरी चेतना इसी बोली में संभव है तो फिर तुलसी और कबीर की संवेदना से राजस्थान से लेकर बिहार तक का विविध बोली-भाषी क्षेत्र सांस्कृतिक ऐक्य का अनुभव कैसे कर सका? यह सच है कि हिंदी को इस विशाल क्षेत्र की संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम इसकी बोलियों को इसके भीतर जगह देकर ही बनाया जा सकता है, पर यह भी सच है कि हिंदी के बगैर इन बोलियों को भी प्राणवायु नहीं मिल सकेगी। 
मानकीकरण, आधुनिक चेतना और प्रौद्योगिकीय तरक्की का लाभ लेने और एक व्यापक क्षेत्र की चिंतन परंपरा और सांस्कृतिक बोध से जुड़ने के लिए बोली क्षेत्र के जनसमुदाय को भी एक मानक भाषा की जरूरत होगी। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के फैलते जाल का प्रतिरोध क्या बुंदेली और भोजपुरी माध्यम की शिक्षा से हो सकेगा?
बृजराज जी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी का उल्लेख करते हुए लिखा है कि द्विवेदी जी को यह मलाल रहा कि उन्होंने बाणभट््ट की आत्मकथाभोजपुरी में नहीं लिखी। प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है कि द्विवेदीजी ने इसके बाद लिखी रचनाओं में भी भोजपुरी का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने कहा था भोजपुरी बड़ी मीठी भाषा है, पर इसे अपने घर में रखिए। 
यह कहना कि बोलियों को हिंदी से निकाल लेना पानी से बिजली निकालने की तरह है, सही नहीं है। हिंदी से बोलियों को निकालना दाल से नमक निकाल लेने के बराबर है। 
वास्तव में बोलियों को पहचान दिलाने के आंदोलनों के पीछे सत्ताच्युत राजनीतिकों, सिनेमा के कलाकारों और लेखकों की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएं हैं, जो इसके माध्यम से अपने लिए सत्ता, धन और यश का एक अनन्य क्षेत्र कायम करना चाहते हैं। इन बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांगों की परिणतियां आखिरकार अलग प्रदेशों के निर्माण के रूप में सामने आती हैं। मिथिलांचल और बोडोलैंड की मांगें इसका सबूत हैं। बोलियों की पहचान के ये आंदोलन बोलियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा और वैमनस्य को भी पैदा करने के लिए जिम्मेदार हैं। मैथिली भाषियों की संख्या में अंगिका वालों की तादाद शामिल करने और उनके साहित्य को मैथिली का बताने पर उनमें (अंगिका वालों में) भारी रोष है। भोजपुरी पर पटना में मगही और चंपारण में मैथिली को दबाने के आरोप लगते रहे हैं। 
दरअसल, हिंदी प्रदेश में ऐतिहासिक कारणों से जातीय आत्मचेतना का विकास बाधित रहा है। औपनिवेशिकता के कोप का भी सर्वाधिक शिकार यही बना है। जातिवाद, संप्रदायवाद से आक्रांत इस प्रदेश को हलकान करने के लिए भस्मासुर कौन पैदा कर रहा है, यह समझना मुश्किल नहीं। वैश्विक पूंजी के रथ के लिए रास्तों को हमवार बनाने वाले लोग अत्यंत कूटनीतिक रूप से जब यह कहते हैं हम रऊआ सब के भावना समझत बानीतब उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि जनाब टुलु, तोदा और कुरुख आदि बोलियां बोलने वालों की भावनाओं का क्या होगा? 
दरअसल, हम जिन्हें बोलियां कहते हैं वे छोटे-छोटे मानव समुदायों के परस्पर संपर्क और समेकन के फलस्वरूप अस्तित्व में आई वाक् समुदाय होती हैं। एक बोली में कई गणभाषाओं के तत्त्व शामिल होते हैं। हिंदी से अलग बोलियों को स्वतंत्र दर्जा देने की मांग सामंती संबंधों की ओर लौटने की मांग है। हां, यह सच है कि अब भी काफी लोग अनौपचारिक संदर्भों में इनका प्रयोग करते हैं। अगर इन्हें बचाने की चिंता सही परिप्रेक्ष्य में करनी है, तो इन्हें हिंदी के पाठ्यक्रम में स्थान देकर इनके साहित्य और कलारूपों का संरक्षण और इनके लिए आर्थिक सहायता देकर और रचनाकारों को पुरस्कृत कर ऐसा किया जा सकता है। पर उनके विकास के नाम पर घर बांटने का उपक्रम आत्मघाती होगा। 
आठवीं अनुसूची में शामिल होते ही बोलियां स्वतंत्र भाषा और उनके बोलने वाले हिंदीतर भाषाभाषी के रूप में गिने जाने लगते हैं। आज भी हिंदी के राजभाषा बने रहने का आधार मात्र उसका संख्याबल है। उसके संख्याबल-विहीन होते ही अंग्रेजी को राजभाषा   बनाने की मांग जोर पकड़ लेगी। ऐसे में बोलियों के पैरोकार किसके पक्ष में खड़े हैं, समझना मुश्किल नहीं। विखंडन के इस उत्साह में मूर्तिभंजकता का सुख कितना घातक सिद्ध होगा, इसे समझना होगा। प्रगति का तकाजा राष्ट्रीयता को कोसने में नहीं, सांस्कृतिक परंपरा के सशक्त प्रतीकों को समझने और उन्हें सुदृढ़ करने में है। वास्तव में बोलियों और भाषा के बीच स्वस्थ आदान-प्रदान और सहयोग से ही हिंदी के जातीय स्वरूप और प्रकारांतर से भारत की बहुजातीय राष्ट्रीयता की सुरक्षा की जा सकती है। 
अपने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्वरूप में हिंदी आज जहां एक गुरुतर दायित्व निभाने को तैयार है, एक उदार सांस्कृतिक रिक्थ की संवाहक भाषा के रूप में वैश्विक स्तर पर उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है। पत्रकारिता और जनसंचार माध्यमों की आवश्यकता ने हिंदी का एक नया रिश्ता उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं से गढ़ा है। वृहत संचार और मनोरंजन की एक सशक्त भाषा के रूप में हिंदी के उभार में उसकी जनपदीय बोलियों और उर्दू की अहम भूमिका है। हिंदी सिनेमा इसका समर्थ गवाह है। ऐसे परिदृश्य में हिंदी की बोलियों को उससे अलग करने का प्रयत्न ढाई चावल की खिचड़ी के उस सुख की तरह है, जिसमें आदमी सुस्वादु व्यंजनों का स्वाद भूल जाता है।


बुधवार, 11 जुलाई 2012

भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन

                                                                                                                विवेक कुमार सिंह

                भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा का मुद्दा आजादी के बाद से बहुत संवेदनशील रहा है । सैकड़ों भाषाओं और बोलियों के देश में प्रत्येक समुदाय की यह इच्छा रहती है कि उसकी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिले तथा भाषा के विकास के लिए सरकारी अनुदान प्राप्त हो।भाषा की प्रतिष्ठा का प्रश्न अब धीरे-धीरे अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने पर टिक गया है । आजादी के बाद संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को मान्यता दी गयी थी जो धीरे-धीरे बढ़ कर 22 हो चुकी है । द हिन्दू अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक गृह मंत्रालय के पास अभी 38 और भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के प्रस्ताव/माँग विचाराधीन हैं । इस आलोक में पूरे भारतीय राजनीतिक तस्वीर पर नजर डालें तो पाते हैं कि भाषा को लेकर पूरे देश में कोई-न-कोई आंदोलन चल रहा है । भारतीय राजनीति में क्षेत्रीयता के उभार ने अस्मिता संघर्ष को भाषायी एकीकरण से अधिक गहराई से जोड़ दिया है ।  भाषा की राजनीति से अंतत: भारतीय भाषाओं के विकास का मुद्दा गौण होता जा रहा है और भाषायी कट्टरता का विस्तार होता जा रहा है । यहाँ नोट करने वाली बात यह है कि भारतीय भाषाओं के तमाम झगड़ों के बीच अंग्रजी निर्णायक की भूमिका में है । अंग्रेजी से किसी का विरोध नहीं है ।इन स्थितियों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के आवश्यकता है । 
    
      15 अगस्त 1947 की अर्द्धरात्रि भारतीय इतिहास के सबसे रोमांचक क्षणों में था जब पंडित जवाहरलाल नेहरु संसद भवन में कह रहे थे ''वर्षों पहले हमने नियति के साथ एक  मुलाकात तय की थी । अब वह कसम पूरी करने का वक्त आ गया है ।'' इस ऐतिहासिक वाक्य के साथ ही हमारी दासता की दो सौ वर्ष पुरानी जंजीरें टूट गयी । भारत एक स्वतंत्र,संगठित राष्ट्र के रुप में दुनिया के सामने खड़ा था । लंबे संघर्षों से मिली स्वतंत्रता कई विरोधाभासों को साथ लेकर आयी   थी । नेहरुजी ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया था । यहाँ सबसे बड़ा सवाल है कि नेहरु जी जैसे संघर्षशील नेता ने अंग्रेजी को माध्यम के रुप में क्यों चुना जिसे इस देश के अधिकांश लोग नहीं समझते थे । पवन कुमार वर्मा इस विरोधाभास पर लिखते हैं कि '' नेहरु जी के ऐतिहासिक भाषण को सुनने के लिए  पूरा देश बेताब था, जिनके पास कम-से-कम  रेडियो की सुविधा और अंगे्रजी का  ज्ञान था ।  अंग्रेजों द्वारा लाल बलुआ  पत्थर से निर्मित भव्य संसद भवन के मखमली कक्ष मे बैठे भारतीय जनता के प्रतिनिधि इस ऐतिहासिक मौके पर नेहरु का भाषण पूरे ध्यान से सुन रहे    थे । दुर्भाग्य से इनके अलावा नेहरु की वक्तृता  कलात्मक और सारगर्भित होने के बावजूद केवल  मुठ्ठी भर भारतवासियों को ही प्रेरित कर पायी । इनमें से ज्यादातर रेडियो सुनने वाले मध्यवर्गीय लोग थे । विशेष बात यह थी कि  ये लोग अंग्रेजी समझ सकते थे । जबकि ब्रिटिश शासन में वर्षों तक रहने के बावजूद बाकी बचे अधिकांश भारतवासियों के लिए  अंग्रेजी एक भाषा और जीवन शैली के प्रतीक के तौर पर विजातीय और असंप्रेषणीय ही थी ।'' नेहरुजी की भाषा संबंधी यही सोच भारतीय शासन की भाषा चिंतन पर हमेशा हावी रहा । भाषा संबंधी विवाद देश में चलते रहे किन्तु शासन की भाषा संबंधी सोच यथावत बनी रही ।

       शासन तंत्र को चलाने के लिए अंग्रेजों के द्वारा बनायी गयी संस्थाएं आजादी के बाद भी यथावत बनी रही । सेना का पदानुक्रम,पुलिस व्यवस्था,सिविल सेवा (जिसके नेहरुजी आलोचक थे ) सबकुछ थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ यथावत बने रहे । इन संस्थाओं को चलाने वाला प्रभुवर्ग जो उच्च मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता था  और  अंग्रेजी भाषा के लिए जिसमें अपनी मातृभाषा को अधिकांश लोगों ने छोड़ रखा था,हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा का समर्थन दिल से नहीं कर सकता था । इस वर्ग को अच्छी तरह यह मालूम था कि पं नेहरु अंग्रेजी भाषा में ही स्वयं को सबसे स्वाभाविक महसूस करते हैं (नेहरुजी इस बात को स्वीकार भी करते थे) । इस वर्ग ने स्वाभाविक रुप से यह मान लिया  कि  देश की एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए आवश्यक सुशासन उनके  द्वारा ही संभव है जिसकी वाहक अंग्रेजी ही हो सकती है । वीर भारत तलवार नेहरुजी के भाषा संबंधी विरोधाभाषों पर लिखते हैं '' यहाँ सबसे मजेदार बात यह है कि  इस देश की सबसे प्रभावशाली  भाषा अंग्रेजी आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है । अंग्रेजी में संघ ही नहीं कई राज्यों के सम्पूर्ण कामकाज होते हैं । अंग्रेजी के प्रभाव को देखते हुए 1959 में इसे आठवीं अनुसूची में शामिल कर लेने का सुझाव दिया गया था तब अंग्रेजी के बड़े समर्थक जवाहरलाल नेहरु ने खुद इस सुझाव का विरोध करते हुए तर्क दिया था कि अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं है,इसलिए इसे आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा सकता । उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि इसे आठवीं अनुसूची में शामिल करने से हिन्दी को राजभाषा के रुप में स्थापित करने की राह में रुकावट आएगी और यह संविधान की आत्मा के खिलाफ होगा  लेकिन इन्हीं नेहरु ने 1963 में आफिसियल लैंग्वेज बिल पर बोलते हुए संसद में यह आश्वासन दिया कि जब तक गैर हिन्दी प्रान्तों की सहमति नहीं होगी ,अँग्रेजी को राजभाषा के उसके वर्तमान प्रयोग से हटाया नहीं जाएगा । अंग्रेजी संबंधी इस एक तथ्य से ही आठवीं अनुसूची की निस्सारता और अर्थहीनता पूरी तरह उजागर हो जाती है ।एक ऐसी भाषा जो आठवीं अनुसूची में है ही नहीं और वह भारतीय भाषा भी नहीं है , वह अकेले आठवीं अनुसूची की सभी भाषाओं से ऊपर है और उन पर भारी पड़ती है । तब फिर आठवीं अनुसूची का मतलब क्या हुआ ?'' (झारखंड के आदिवासियों के बीच,पृ 279) 

           स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तत्काल देश को भाषा से जुड़ी तीन प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ा । पहला था राजभाषा का सवाल,दूसरा भाषायी आधार पर राज्यों का गठन और तीसरा हिन्दी के साथ भारतीय भाषाओं का संबंध । संविधान निर्माताओं ने तमाम विवादों के बावजूद अनिवार्य राजभाषा और उसके विकास का मार्ग प्रसस्त कर दिया था । अनुच्छेद 351 में हिन्दी के विकास के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश तय कर दिए गए थे किन्तु जिस शासनतंत्र को राजभाषा और भारतीय भाषाओं  से संबंधित प्रावधानों को लागू करना था उसने कभी तत्परता नहीं दिखाई । दक्षिण भारतीय राज्यों में तीन भाषा फार्मूले के लिए आवश्यक हिन्दी किताबों और अनुदानों में भी इस प्रभुवर्ग ने सिरफुटौव्वल करना उचित नहीं समझा । परिणामस्वरुप समस्याएं उलझती चली गयीं । हाल ही में झारखंड की घटना इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है । 14 जुलाई 2009 को द हिन्दू में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 2003 में झारखंड सरकार ने यह निर्णय लिया कि पहली से पाँचवीं कक्षा तक बच्चों को जनजातीय भाषा में छपी किताबें मुफ्त में मुहैय्या करायी जाएंगी । जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के द्वारा तैयार पांडुलिपि के आधार पर प्रकाशित पुस्तकें वर्ष 2004-05 तथा 2007-08 में वितरित किए गए । किन्तु इन पुस्तकों का कोई उपयोग नहीं हो सका । जनजातीय भाषा एवं लिपि जानने वाले न तो छात्र हैं और न ही शिक्षक ही । महालेखा परीक्षक ने एक करोड़ से ज्यादा की पुस्तकों की बर्बादी पर रोष जताया है । इस मामले के राजनीतिक निहितार्थों को समझा जा  सकता है । शासन की हड़बड़ी राजनीतिक हितों के लिए जनजातीय भाषा को लागू करना है न कि उसके विकास की समुचित व्यवस्था ।इस संबंध में पवन वर्मा की टिप्पणी महत्वपूर्ण है ''1947 के तुरन्त बाद देशभक्ति की भावनाओं के उफान व आजादी  के आंदोलन की उत्साहजनक स्मृतियों के माहौल में राष्ट्रभाषा का हित साधन करने वाले कदम उठाए जा  सकते थे । लेकिन,या तो इन कदमों की उपेक्षा की गई या उन्हें गंभीरता से लागू ही नहीं किया गया । कुछ वर्षों बाद भाषायी उग्रवाद का विस्फोट हुआ । इसे पहले ही शांत किया जा सकता था बशर्ते शुरु से इस समस्या पर कल्पनाशीलता के साथ ध्यान दिया जाता । इस पूरे मामले में कुटिल इरादों का खेल भी देखा जा सकता है  और यह तर्क भी दिया जा सकता है कि भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के मसले पर हुए टकराव से भी उन लोगों को लाभ हुआ जो अंग्रेजी को हटाने के  लक्ष्य से कभी सहमत नहीं थे ।''(भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान पृ 65)

      महात्मा गाँधी और कांग्रेस पार्टी की इच्छा थी कि भाषायी आधार पर राज्यों का गठन किया जाए । इसकी रुपरेखा 1917 के आस-पास तय कर ली गई थी । 1920 में स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो गई  जब कांग्रेस ने भाषायी आधार पर कांग्रेस कमिटियाँ गठित कर दीं । देश की बहुभाषिक स्थिति को देखते हुए कांग्रेस का अधिकांश कामकाज अंग्रेजी में चलता रहा । आजादी के बाद   धर्म के आधार पर देश के विभाजन ने नए बनते 'भारत' के सामने  जटिल समस्याएं खड़ी कर   दी । धर्म के आधार पर बँट चुके देश को महात्मा गाँधी और पं नेहरु भाषा के आधार पर पुन: बाँटने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे । इस बीच आंध्र प्रदेश की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया ।

     अलग तेलुगू राज्य की माँग को लेकर तेलुगू भाषी क्षेत्रों में आंदोलन चल रहा था (वर्तमान आंध्र प्रदेश )। नेहरुजी भाषा के आधार पर प्रांत बनाने के खिलाफ थे । अलग तेलुगू राज्य के लिए पोट्टी श्रीरामालू ने आमरण अनसन आरंभ कर दिया । 58 दिनों के अनसन के बाद श्रीरामालू की मौत हो गई । उसकी मृत्यु ने आंदोलनकारियों को अनियंत्रित कर दिया । स्थिति को नियंत्रण से बाहर जाते देख नेहरुजी ने इस माँग को मान लिया । आंध्र प्रदेश के बाद सबसे विवादास्पद मुद्दा  तत्कालीन बंबई राज्य का था । गैर मराठी (गुजराती,पारसी) समुदाय का मानना था कि  बंबई में चुँकि सभी भाषा-भाषी लोग रहते हैं अत: इसे मराठी राज्य में शामिल न करके  नगर राज्य (सिटी स्टेट) के रुप में विकसित किया जाए । बाम्बे सिटिजन कमिटि ने 200 पृष्ठों की पुस्तिका नगर राज्य के समर्थन में प्रकाशित किया । मराठियों ने बांबे सिटिजन कमिटि की रिपोर्ट का खूब विरोध किया । यहाँ तक कि बंबई मामले पर मराठी और गुजराती कांग्रेस सांसदों में ही विभाजन हो गया । इससे भड़की हिंसा ने पूरे मुंबई को ठप्प कर दिया । अरबों की संपत्ति और दर्जनों लोगों की जान हिंसा में चली गई । अन्तत: 1954 में गठित राज्य पुनगर्ठन आयोग की संस्तुतियों के आधार पर भाषा के आधार पर राज्यों का गठन कर दिया गया (देखें रामचन्द्र गुहा,इंडिया आफ्टर गाँधी)।यहाँ यह नोट करना जरुरी है कि केन्द्र सरकार भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के पक्ष में नहीं थी । तेजी से बदलते तत्कालीन घटनाक्रम ने केन्द्र सरकार को इसके लिए बाध्य कर दिया था । भाषायी राज्य के केन्द्र में दक्षिण भारतीय राज्य और मुंबई छाए रहे । हिन्दी भाषी राज्य मूक दर्शक बने देखते रहे । इस प्रसंग का सबसे दुखद पहलू है कि भाषायी पहचान को लेकर जितने उग्र प्रदर्शन संबंधित राज्यों में हुए उसका रत्ती भर इच्छाशक्ति भी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास और अंग्रेजी के बरअक्स महत्व दिलाने में शासन चलाने वाले प्रभुवर्ग ने नहीं दिखाया ।

     भाषायी राज्यों के गठन के पीछे एक आदर्श की परिकल्पना की जा सकती थी - समान भाषा बोलने वाले लाखों  लोगों का समूह  जाति और धर्म से ऊपर उठ कर  भाषायी पहचान के आधर पर एक सूत्र में बँधेगा । जिसके रीति-रिवाज,आचार-व्यवहार और इतिहास के प्रति दृष्टिकोण एक समान होंगे ।इससे जाति और धर्म के आधार पर बँटे समाज को एकजुट करने में सहायता मिलेगी । विभिन्न भाषायी समूहों के  राज्य एक सशक्त केन्द्र के अधीन कार्य करेंगे जिससे गणतांत्रिक राज्य (फेडरल स्टेट ) की परिकल्पना साकार होगी । क्या यह अवधारणा केवल एक सपना भर है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है ! छ: दशकों के अनुभव से हम जानते हैं कि राज्यों के बीच पूर्ण सौहार्द्र की स्थिति कभी नहीं रही । कावेरी विवाद के राजनैतिक हल में भाषायी अस्मिता सदैव आड़े आती रही ।तमिलनाडु सरकार के स्कूलों में अनिवार्य रुप से तमिल पढ़ाने  की नीति को तमिलनाडु में रहने वाले मलयालम भाषी सर्वोच्च न्यायालय तक चुनौती देते रहे । भाषायी अस्मिता की लड़ाई में भारतीय भाषाएं एक दूसरे के खिलाफ तने हुई दिखायी देती है । इन विवादों में भाषाओं का अपना संसार अंग्रेजी के बरअक्स किस तरह सिमटता जा रहा है,इसका अंदाजा तथाकथित भाषा प्रेमियों को नहीं है ।

   जब भाषायी आधार पर राज्य बन रहे थे उस समय हिन्दी भाषी क्षेत्रों की क्या स्थिति थी,यह जानना भी रोचक होगा । हिन्दी जाति की गंभीरतापूर्वक  वकालत करने वाले डॉ रामविलास शर्मा हिन्दी प्रदेश की स्थिति बयान करते हुए लिखते हैं '' जिस समय सारे देश में भाषा के आधार पर प्रान्त अथवा राज्य निर्माण  की चर्चा चलती रही है ,हमारे प्रदेश में अनेक राज्यों को मिलाकर विशाल हिन्दी प्रदेश के गठन का आंदोलन नहीं चला । इसके विपरीत उत्तर प्रदेश को ही विभाजित करने की बात राजनीतिज्ञों में सुनाई दी ।अन्यत्र भाषाओं के आधार पर प्रान्त निर्माण करने से विशेषकर दक्षिण में छोटे राज्य का चित्र सामने आता है । किन्तु हिन्दीभाषियों को एक प्रदेश में संगठित करने से अनेक राज्यों में एक बड़ा राज्य बनता था । विभाजन के बदले स्पष्ट ही देश की एकता दृढ़ होती थी ।किन्तु इस ओर किसी राजनीतिक दल ने ध्यान नहीं दिया ।यह स्थिति हमारे प्रदेश में जातीय चेतना के अपेक्षाकृत  अभाव का परिणाम है ।''        
      
        हिन्दी प्रदेश में जातीय चेतना के अभाव की चर्चा करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं कि '' हिन्दी भाषी प्रदेश असाधारण रुप से विशाल है । उसमें किसी किसी भी भाषा क्षेत्र  की तुलना में बोलियों की संख्या अधिक है ।इस क्षेत्र में ब्रज,अवधी और मैथिली जेसी बोलियाँ हैं जिनका अपना विशाल साहित्य भंडार है । अनेक लोगों के मन में अब भी यह दुविधा है कि ये बोलियाँ हैं या हिन्दी से स्वतंत्र भाषाएं हैं ।यातायात के साधनों का समुचित विकास न होने और उद्योग धन्धों और व्यापार में हमारे प्रदेश के अनेक भागों के पिछड़े रहने से यह जातीय एकता का भाव विशृंखल सा रहा है । इन बोलियों की समस्या के अलावा हमारे यहाँ हिन्दी-उर्दू की विशेष समस्या रही है । बोलचाल की भाषा के दो शिष्ट या साहित्यिक रुप होने से जातीय गठन में बाधा पड़ती रही है,एक ही दिशा में बढ़ने के बदले सांस्कृतिक शक्तियाँ दो दिशाओं में बँट गयी थी।''(देखें भारत की भाषा समस्या) रामविलास शर्मा जिस समस्या की ओर इशारा कर रहे हैं वह वर्तमान सन्दर्भों में और स्पष्ट होती जा रही है । उत्तर प्रदेश को प्रशासनिक सुविधा के लिए बाँटने की माँग लगातार उठती रहती है । सवाल है कि किसी राज्य का आकार कितना बड़ा हो कि शासन ठीक ढंग से चल सके । इस बात का कोई सटीक पैमाना नहीं हो सकता ।सुशासन के लिए स्पष्ट सोच,दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और दूसरों की भावना के प्रति आदर न्यूनतम शर्तें  हैं ।अन्यथा राज्य का आकार जिले के जैसा हो या उत्तर प्रदेश जैसा क्या  फर्क  पड़ता है।

      हिन्दी भाषी प्रदेशों के विभाजन ने हिन्दी भाषा के भीतर विभिन्न अस्मिताओं के उभार की गति को तीव्र किया है ।आज गठबंधन सरकार के युग में अनेक राज्यों का गठन ,जिसमें अधिकांश अपनी क्षेत्रीय हितों के लिए तत्पर हैं,खतरनाक है। आज जब पर्यावरण का संकट गहरा रहा है ,नदियों के जल को बँटवारे को लेकर दो राज्यों के बीच गंभीर स्थितियाँ बन जाती हैं । आरक्षण की मांग को लेकर आए दिन रेल की पटरियों को रोक देने वाले समूहों को लेकर राज्य और केन्द्र सरकारें एक दूसरे का मुंह ताकते रह जातीं हैं कि कार्रवाई कौन करे । सांस्कृतिक अस्मिता के आधार पर बने अलग राज्यों का अनुभव तो यही है कि वे आपसी राजनीतिक गतिरोधों को बढ़ाते ही हैं कम नहीं करते । तिरुवल्लूवर की एक मूर्ति बंगलुरु में लगवाने में सरकार को अठारह वर्ष तक कन्नड़ जनता का मानमनौव्वल करना पड़ता है और बदले में सर्वजन (कन्नड़ संत कवि) की मूर्ति चेन्नई में लगाई जाती है ।(देखें द हिन्दू 14 अगस्त 2009) ऐसे माहौल में भाषायी अस्मिता के आधार पर हिन्दी प्रदेशों का विभाजन राजनीतिक और सामाजिक सौहार्द्र के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है ।भविष्य में गंगा और यमुना जैसे बारहमासी नदियों के जल बँटवारे के लिए विवाद हो तो आश्चर्य  नहीं करना   चाहिए ।

      बहुत से लोगों का मानना है कि  भोजपुरी,मैथिली,उराँव या फिर कोई भी बोली अगर आठवीं अनुसूची में शामिल कर ली जाती है  तो हिन्दी वाले इतना शोर क्यों मचाते हैं ? दरअसल आपत्ति आठवी अनुसूची में भाषाओं के शामिल करने पर नहीं है । आपत्ति उस सोच पर है जिसके तहत ऐसा किया जा रहा है ।एक ही भाषा की दो बोलियों को एक दूसरे के बरअक्स राजनीतिक हथियार के रुप में खड़ा करना क्या उचित है ? मैथिली के आठवीं अनुसूची में शामिल होते ही अलग मिथिलांचल राज्य की मांग जोर पकड़ती जा रही है ।आवश्यकता हो तो आप 28 के बजाय 100 राज्य बना दें आठवीं अनुसूची में 22 के बजाय भारत की 1652 भाषाओं को शामिल कर दें किन्तु भाषा की पूँछ पकड़ कर राज्य बनाने से भाषा और उसके बोलने वालों को कोई लाभ होता है या नहीं इसका मूल्यांकन जरुर करना चाहिए ।क्या आने वाले दिनों में मैथिली,भोजपुरी,मगही और अंगिका में स्कूली या उच्चतर शिक्षा दी जाएगी ।

      हिन्दी भाषी राज्यों पर नजर डालंे तो मानव विकास के सूचकांकों में भारत में सबसे पिछड़े  हुए राज्य हैं । सबसे कम साक्षरता,गरीबी,उच्च शिशु और मातृ मृत्युदर ,निम्न जीवन प्रत्याशा के साथ-साथ उद्योग-धंधों,सड़क बिजली जैसी आधारभूत संरचनाओं के अल्प विकास के कारण हिन्दी भाषी राज्य नए भारत के निर्माण में किस प्रकार योगदान कर सकते हैं यह विचारणीय प्रश्न है। अपने गृह राज्य में रोजगार के कम अवसरों के कारण  हिन्दी भाषी अन्य राज्यों में रोजगार के लिए पलायन करते हैं । इस पलायन के कारण कई प्रकार की सामाजिक विषमताएं उभर कर आती हैं  जिनका उपयोग राजनीतिक हितों को साधने में भी किया जाता है । हाल ही में रेलवे भर्ती की परीक्षा के समय हुई मारपीट की घटनाएं इन्हीं विषमताओं की ओर संकेत करती हैं । दूसरा उदाहरण पंजाब और हरियाणा है । रोजगार गारंटी योजना के कारण दैनिक मजदूरी के अवसर बिहार और उत्तर प्रदेश में बढ़ने के कारण दिहाड़ी मजदूरों का पलायन पंजाब-हरियाणा में कम हो गया है जिससे वहाँ पिछले दो वर्षों से धान की रोपाई में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है । वहां के किसान बिहारी मजदूरों पर बहुत ज्यादा आश्रित हो चुके थे ।
यहाँ यह सोचना लाजिमी नहीं है  कि मूलभूत राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर पर्दा डालने के लिए भाषा के मुद्दे को उछाला जाता है ।जब विदर्भ के किसान लगातार आत्महत्या कर रहे थे और बुंदेलखंड में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ था तभी मराठी बनाम हिन्दी भाषी का मसला शामने आया जिसने विदर्भ और बुन्देलखंड को स्वत: नेपथ्य में ढकेल दिया ।
     भाषायी अस्मिता के चौखटे से निकल कर देखें तो बृहत्तर स्तर पर देश की चुनौतियों को ठीक ढंग से रेखांकित किया जा सकता है । चुनौतियों की सही पहचान में ही उनके समाधान छिपे होते हैं ।
विवेक कुमार सिंह
उप प्रबंधक (राजभाषा), भारतीय स्टेट बैंक
फ्लैट नं 3/1/1,एसबीआई कांप्लेक्स,
गोल्फ क्लब रोड,टालीगंज
कोलकाता-700033

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सोमवार, 2 जुलाई 2012

चिन्दी चिन्दी होती हिन्दी। हम क्या करें ?


    
                                                डॉ. अमरनाथ
संसद का आगामी मानसून सत्र हमारी राजभाषा हिन्दी के लिए सुनामी का कहर बनकर आएगा और उसे चन्द मिनटों मे टुकड़े-टुकड़े करके छिन्न-भिन्न कर देगा। चन्द मिनटों में इसलिए कह रहा हूं क्योंकि गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने विगत 17 मई 2012 को लोक सभा के सांसदों को आश्वासन दे रखा है कि इसी सत्र में भोजपुरी सहित हिन्दी की कई बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने वाला बिल संसद में पेश होगा। यदि हमने समय रहते इस बिल के पीछे छिपी साम्राज्यवाद और उसके दलालों की साजिश का पर्दाफाश नहीं किया तो हमें उम्मीद है कि यह बिल बिना किसी बहस के कुछ मिनटों में ही पारित हो जाएगा और हिन्दी टुकड़े-टुकड़े होकर विखर जाएगी। इस देश के गृहमंत्री की जबान से इस देश की राजभाषा हिन्दी के शब्द सुनने के लिए जो कान तरसते रह गए उसी गृहमंत्री ने हम रउआ सबके भावना समझतानीं जैसा भोजपुरी का वाक्य बोलकर भोजपुरी भाषियों का दिल जीत लिया। सच है भोजपुरी भाषी आज भी दिल से ही काम लेते हैं, दिमाग से नहीं, वर्ना, अपनी अप्रतिम ऐतिहासिक विरासत, सांस्कृतिक समृद्धि, श्रम की क्षमता, उर्वर भूमि और गंगा यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों के रहते हुए यह हिन्दी भाषी क्षेत्र आज भी सबसे पिछड़ा क्यों रहता ? यहाँ के लोगों को तो अपने हित- अनहित की भी समझ नहीं है। वैश्वीकरण के इस युग में जहां दुनिया के देशों की सरहदें टूट रही हैं,  टुकड़े टुकड़े होकर विखरना हिन्दी भाषियों की नियति बन चुकी है।
      सच है, जातीय चेतना जहाँ सजग और मजबूत नहीं होती वहाँ वह अपने समाज को विपथित भी करती हैं। समय-समय पर उसके भीतर विखंडनवादी शक्तियाँ सर उठाती रहती हैं। विखंडन व्यापक साम्राज्यवादी षड्यंत्र का ही एक हिस्सा है। दुर्भाग्य से हिन्दी जाति की जातीय चेतना मजबूत नहीं है और इसीलिए वह लगातार टूट रही है।
 अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है। साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली । जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल थीं। फिर 14, 18  और अब 22 हो चुकी हैं। अकारण नहीं है कि जहाँ एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएं यानी अस्मिताएं टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है। हमारी दृष्टि में ही दोष है। इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के लोगों द्वारा गलोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ो-टुकड़ो में बांट करके कमजोर किया जा रहा है।
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग समय-समय पर संसद में होती रही है। श्री प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, संजय निरूपम, अली अनवर अंसारी, योगी आदित्य नाथ जैसे सांसदों ने समय-समय पर यह मुद्दा उठाया है। मामला सिर्फ भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का नहीं है। मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ ने 28 नवंबर 2007 को अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी घोषित किया और विधान सभा में प्रस्ताव पारित करके उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की। यही स्थिति राजस्थानी की भी है। हकीकत यह है कि जिस राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों से की जा रही है उस नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। राजस्थान की 74 में से सिर्फ 9 ( ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है। बाकी बोलियों पर चुप्पी क्यों ? इसी तरह छत्तीसगढ़ में 94  बोलियां हैं जिनमें सरगुजिया और हालवी जैसी समृद्ध बोलियां भी है। छत्तीसगढ़ी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ने वालों को इन छोटी-छोटी उप बोलियां बोलने वालों के अधिकारों की चिन्ता क्यों नहीं है ? पिछले दिनों केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री नवीन जिंदल ने लोक सभा में एक चर्चा को दौरान कुमांयूनी-गढ़वाली को संवैधानिक दर्जा देने का आश्वासन दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि यदि हरियाणा सरकार हरियाणवी के लिए कोई संस्तुति भेजती है तो उसपर भी विचार किया जाएगा। मैथिली तो पहले ही शामिल हो चुकी है। फिर  अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि उन्हें आठवीं अनुसूची में जगह न दी जाय जबकि उनके पास रामचरितमानस और पद्मावत जैसे ग्रंथ है ? हिन्दी साहित्य के इतिहास का पूरा मध्य काल तो ब्रज भाषा में ही लिखा गया। इसी के भीतर वह कालखण्ड भी है जिसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग ( भक्ति काल ) कहते हैं।
भागलपुर विश्वविद्यालय में अंगिका में भी एम.ए. की पढ़ाई होती है। मैने वहाँ के एक शिक्षक से पूछा कि अंगिका में एम.ए. की पढ़ाई करने वालों का भविष्य क्या है ? उन्होंने बताया कि उन्हें सिर्फ डिग्री से मतलब होता है विषय से नहीं। एम.ए. की डिग्री मिल जाने से एल.टी. ग्रेड के शिक्षक को पी.जी. (प्रवक्ता) का वेतनमान मिलने लगता है। वैसे नियमित कक्षाएं कम ही चलती हैं। जिन्हें डिग्री की लालसा होती है वे ही प्रवेश लेते हैं और अमूमन सिर्फ परीक्षा देने आते हैं। जिस शिक्षक से मैने प्रश्न किया उनका भी एक उपन्यास कोर्स में लगा है जिसे इसी उद्देश्य से उन्होंने अंगिका में लिखा है मगर हैं वे हिन्दी के प्रोफेसर। वे रोटी तो हिन्दी की खाते हैं किन्तु अंगिका को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके पीछे उनका यही स्वार्थ है। अंगिका के लोग अपने पड़ोसी मैथिली वालों पर आरोप लगाते हैं कि उन लोगों ने जिस साहित्य को अपना बताकर पेश किया है और संवैधानिक दर्जा हासिल किया है उसका बहुत सा हिस्सा वस्तुत: अंगिका का है। इस तरह पड़ोस की मैथिली ने उनके साथ धोखा किया है। यानी, बोलियों के आपसी अंतर्विरोध। अस्मिताओं की वकालत करने वालों के पास इसका क्या जवाब है ?
संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिन्दुस्तान की कौन सी भाषा है जिसमें बोलियां नहीं हैं ? गुजराती में सौराष्ट्री, गामड़िया, खाकी, आदि, असमिया में क्षखा, मयांग आदि, ओड़िया में संभलपुरी, मुघलबंक्षी आदि, बंगला में बारिक, भटियारी, चिरमार, मलपहाड़िया, सामरिया, सराकी, सिरिपुरिया आदि, मराठी में गवड़ी, कसारगोड़, कोस्ती, नागपुरी, कुड़ाली आदि। इनमें तो कहीं भी अलग होने का आन्दोलन सुनायी नहीं दे रहा है।  बंगला तक में नहीं, जहां अलग देश है। मैं बंगला में लिखना पढ़ना जानता हूं किन्तु ढाका की बंगला समझने में बड़ी असुविधा होती है।
 अस्मिताओं की राजनीति करने वाले कौन लोग हैं ? कुछ गिने –चुने नेता, कुछ अभिनेता और कुछ स्वनामधन्य बोलियों के साहित्यकार। नेता जिन्हें स्थानीय जनता से वोट चाहिए। उन्हें पता होता है कि किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति की भावनाओं में बहाकर गाँव की सीधी-सादी जनता का मूल्यवान वोट हासिल किया जा सकता है।
      इसी तरह भोजपुरी का अभिनेता रवि किसन यदि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए  संसद के सामने धरना देने की धमकी देता है तो उसका निहितार्थ समझ में आता है क्योकि, एक बार मान्यता मिल जाने के बाद उन जैसे कलाकारों और उनकी फिल्मों को सरकारी खजाने से भरपूर धन मिलने लगेगा। शत्रुघ्न सिन्हा ने लोकसभा में यह मांग उठाते हुए दलील दिया था कि इससे भोजपुरी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता और वैधानिक दर्जा दिलाने में काफी मदद मिलेगी।  
बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने में वे साहित्यकार सबसे आगे हैं जिन्हें हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा में पुरस्कृत और सम्मानित होने की उम्मीद टूट चुकी है। हमारे कुछ मित्र तो इन्हीं के बलपर हर साल दुनिया की सैर करते हैं और करोड़ो का वारा- न्यारा करते है। स्मरणीय है कि नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी मैथिनी कृति पर मिला था किसी हिन्दी कृति पर नहीं। बुनियादी सवाल यह है कि आम जनता को इससे क्या लाभ होगा ?
एक ओर सैम पित्रोदा द्वारा प्रस्तावित ज्ञान आयोग की रिपोर्ट जिसमें इस देश के ऊपर के उच्च मध्य वर्ग को अंग्रेज बनाने की योजना है और दूसरी ओर गरीब गँवार जनता को उसी तरह कूप मंडूक बनाए रखने की साजिश। इस साजिश में कारपोरेट दुनिया की क्या और कितनी भूमिका है –यह शोध का विषय है। मुझे उम्मीद है कि निष्कर्ष चौंकाने वाले होंगे।
      वस्तुत: साम्राज्यवाद की साजिश हिन्दी की शक्ति को खण्ड-खण्ड करने की है क्योकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है। इस देश में अंग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है। इसलिए हिन्दी को कमजोर करके इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है। अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद की यही साजिश है।
      जो लोग बोलियो की वकालत करते हुए अस्मिताओं के उभार को जायज ठहरा रहे हैं वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, खुद व्यवस्था से साँठ-गाँठ करके उसकी मलाई खा रहे हैं और अपने आस-पास की जनता को जाहिल और गंवार बनाए रखना चाहते हैं ताकि भविष्य में भी उनपर अपना वर्चस्व कायम रहे। जिस देश में खुद राजभाषा हिन्दी अब तक ज्ञान की भाषा न बन सकी हो वहाँ भोजपुरी, राजस्थानी, और छत्तीसगढ़ी के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देकर वे उन्हें क्या बनाना चाहते है ?  जिस भोजपुरी, राजस्थानी या छत्तीसगढ़ी का कोई मानक रूप तक तय नहीं है, जिसके पास गद्य तक विकसित नहीं हो सका है उस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराकर उसमें मेडिकल और इंजीनियरी की पढ़ाई की उम्मीद करने के पीछे की धूर्त मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है।
      अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की सचमुच चिन्ता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए। उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिन्दी से अलग कर देना और उसके समानान्तर खड़ा कर देना तो उसे और हिन्दी, दोनो को कमजोर बनाना है और उन्हें आपस में लड़ाना है।
मित्रो, मैं बंगाल का हूँ। बंगाल की दुर्गा पूजा मशहूर है। मैं जब भी हिन्दी के बारे में सोचता हूं तो मुझे दुर्गा का मिथक याद आता है। दुर्गा बनी कैसे ? महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे। अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा। अर्थात् सभी देवताओं के शरीर से प्रक़ट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया  और अपने प्रकाश से तीनो लोकों में व्याप्त हो गया । तब जाकर महिषासुर का बध हो सका।
हिन्दी भी ठीक दुर्गा की तरह है। जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और दुर्गा बनी वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम हिन्दी है। यदि सभी देवता अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी, वैसे ही यदि सारी बोलियां अलग हो जायँ तो हिन्दी के पास बचेगा क्या ? हिन्दी का अपना क्षेत्र कितना है ? वह दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। हम हिन्दी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा  को पढ़ते है जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते है जो मैथिली के हैं। इन सबको हटा देने पर हिन्दी साहित्य में बचेगा क्या ?
अपने पड़ोसी नेपाल में सन् 2001 में जनगणना हुई थी। उसकी रिपोर्ट के अनुसार वहाँ अवधी बोलने वाले 2.47 प्रतिशत, थारू बोलने वाले 5.83 प्रतिशत, भोजपुरी बोलने वाले 7.53 प्रतिशत और सबसे अधिक मैथिली बोलने वाले 12.30 प्रतिशत हैं। वहाँ हिन्दी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 1 लाख 5 हजार है। यानी, बाकी लोग हिन्दी जानते ही नहीं। मैने कई बार नेपाल की यात्रा की है। काठमांडू में भी सिर्फ हिन्दी जानने से काम चल जाएगा। नेपाल में एक करोड़ से अधिक सिर्फ मधेसी मूल के हैं। भारत से बाहर दक्षिण एशिया में सबसे अधिक हिन्दी फिल्में यदि कहीं देखी जाती हैं तो वह नेपाल है। ऐसी दशा में वहाँ हिन्दी भाषियों की संख्या को एक लाख पाँच हजार बताने से बढ़कर बेईमानी और क्या हो सकती है ? हिन्दी को टुकड़ो-टुकड़ों में बाँटकर जनगणना करायी गई और फिर अपने अनुकूल निष्कर्ष निकाल लिया गया।
ठीक यही साजिश भारत में भी चल रही है। हिन्दी की सबसे बड़ी ताकत उसकी संख्या है। इस देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी बोलती है और यह संख्या बल बोलियों के नाते है। बोलियों की संख्या मिलकर ही हिन्दी की संख्या बनती है। यदि बोलियां आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो आने वाली जनगणना में मैथिली की तरह भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को अपनी मातृभाषा बताने वाले हिन्दी भाषी नहीं गिने जाएंगे और तब हिन्दी तो मातृ-भाषा बताने वाले गिनती के रह जाएंगे, हिन्दी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी और तब अंग्रेजी को भारत की राजभाषा बनाने के पक्षधर उठ खड़े होंगे और उनके पास उसके लिए अकाट्य वस्तुगत तर्क होंगे। ( अब तो हमारे देश के अनेक काले अंग्रेज बेशर्मी के साथ अंग्रेजी को भारतीय भाषा कहने भी लगे हैं।) उल्लेखनीय है कि सिर्फ संख्या-बल की ताकत पर ही हिन्दी, भारत की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है।
मित्रो, हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिन्दी ही है। हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता है। हिन्दी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमे हम अपने सारे औपचारिक और शासन संबंधी काम काज करते हैं। यदि हिन्दी की तमाम बोलियां अपने अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिन्दी की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो जाएगी।
इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना पड़ेगा। विद्यापति को अबतक हम हिन्दी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे । अब हम उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं। क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाय़ ?
 हिन्दी ( हिन्दुस्तानी ) जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है। वह दस राज्यों में फैली हुई है। इस देश के अधिकाँश प्रधान मंत्री हिन्दी जाति ने दिए हैं। भारत की राजनीति को हिन्दी जाति दिशा देती रही है। इसकी शक्ति को छिन्न –भिन्न करना है। इनकी बोलियों को संवैधानिक दरजा दो। इन्हें एक-दूसरे के आमने-सामने करो। इससे एक ही तीर से कई निशाने लगेंगे। हिन्दी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी। हिन्दी भाषी आपस में बँटकर लड़ते रहेंगे और ज्ञान की भाषा से दूर रहकर कूपमंडूक बने रहेंगे। बोलियाँ हिन्दी से अलग होकर अलग-थलग पड़ जाएंगी और स्वत: कमजोर पड़कर खत्म हो जाएंगी।
मित्रो, चीनी का सबसे छोटा दाना पानी में सबसे पहले घुलता है। हमारे ही किसी अनुभवी पूर्वज ने कहा है,अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च। अजा पुत्रं बलिं दद्यात दैवो दुर्बल घातक:
 अर्थात् घोड़े की बलि नहीं दी जाती, हाथी की भी बलि नही दी जाती और बाघ के बलि की तो कल्पना भी नही की जा सकती। बकरे की ही बलि दी जाती है। दैव भी दुर्बल का ही घातक होता है।
अब तय हमें ही करना है कि हम बाघ की तरह बनकर रहना चाहते हैं या बकरे की तरह।
हम सबसे पहले अपने माननीय सांसदों एवं अन्य जनप्रतिनिधियों से प्रार्थना करते हैं कि वे अत्यंत गंभीर और दूरगामी प्रभाव डालने वाली इस आत्मघाती मांग पर पुनर्विचार करें और भावना में न बहकर अपनी राजभाषा हिन्दी को टूटने से बचाएं।
हम हिन्दी समाज के अपने बुद्धिजीवियों से साम्राज्यवाद और व्यूरोक्रेसी की मिली भगत से रची जा रही इस साजिश से सतर्क होने और एकजुट होकर इसका पुरजोर विरोध करने की अपील करते हैं।


अध्यक्ष, अपनी भाषा तथा प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय
संपर्क: ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091
            मो. 09433009898 ई-मेल : amarnath.cu@gmail.com   

रविवार, 4 सितंबर 2011


''अपनी भाषा'' एक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संगठन है. संस्था का मूल कार्य समस्त भारतीय भाषाओं के बीच सेतु स्थापित कर उनके भीतर समानता के सूत्र खोजना है. यह संस्था प्रत्येक नागरिक को अपनी मातृभाषा के अलावा कोई एक अन्य भारतीय भाषा सीखने के लिए प्रेरित करती है. इसी कड़ी में हम प्रत्येक वर्ष एक ऐसे साहित्यकार को सम्मानित करते हैं जिन्होंने हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच सेतु का काम किया हो.
वर्ष 2001 से संस्था द्वारा प्रतिवर्ष हिंदी तथा किसी अन्य भारतीय भाषा के बीच अनुवाद कार्य तथा अपने मौलिक लेखन द्वारा सेतु कायम करने वाले किसी एक रचनाकार को 'जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु  सम्मान' से विभूषित किया जाता है । जस्टिस शारदाचरण मित्र ने 1905 में 'एक लिपि विस्तार परिषद' की स्थापना की थी और उसकी ओर से 1917 तक उन्होंने 'देवनागर ' नामक मासिक पत्र निकालकर भारतीय भाषाओं को जोड़ने की दिशा में एक मिशाल कायम किया था। वे कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस और 'बंगीय साहित्य परिषद' के अध्यक्ष जैसे पदों को सुशोभित कर चुके थे।
 संस्था अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम करती  है तथा  ज्वलंत विषयों पर बुलेटिन एवं हैंडबिल एवं समय -समय पर पुस्तक  आदि का प्रकाशन करती है। संस्था की ओर से एक अनियतकालीन पत्रिका ''भाषा विमर्श'' का प्रकाशन भी किया जाता है ।

संस्था द्वारा भाषा समस्या से जुड़े गंभीर और ज्वलंत विषयों पर आयोजित संगोष्ठियों को  महाश्वेता देवीनीरेन्द्रनाथचक्रवर्तीपवित्र सरकाररुद्रप्रसाद सेनगुप्ता,  मैनेजर पान्डेय,  प्रतिभा अग्रवालसुनील गंगोपाध्यायकृष्ण बिहारीमिश्रदेवेश रायचंद्रकांत बांदिवडेकरशंकरलाल पुरोहितप्रभाकर श्रोत्रियनवनीता देवसेनकृष्णचंद्र भुइयां,कल्याणमल लोढ़ाजवरीमल्ल पारख हरिवंशनवारुण भट्टाचार्यरामदेव शुक्लअजय तिवारीरविभूषण,बी.वै.ललिताम्बाममता कालियाएन.विश्वनाथननितीश विश्वासवी.रा.जगन्नाथनरवीन्द्र कालियाचमनलालआदि बांग्ला, ओड़िया, मराठी, तेलुगु, तमिल, पंजाबी, हिंदी ,  अंग्रेजी आदि भाषाओं के ख्यातिलब्ध साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी संबोधित कर चुके हैं।