सोमवार, 30 जुलाई 2012

ढाई चावल की खिचड़ी


                                                                                                                  ऋषिकेश राय 
बृजराज सिंह के लेख समझे हैं, न समझेंगे’ (15 जुलाई) में बोलियों की अस्मिता की बात तो बखूबी की गई है, पर इस क्रम में जातीय भाषा और बोलियों के अंतर्संबंध का सूत्र छूट गया है। हिंदी एक विशाल भूभाग की जातीय भाषा है, जिसकी निर्मिति में उसकी अंगभूत बोलियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। राष्ट्रीयता की परियोजना में जनपदीय बोलियों ने भी आधुनिक चेतना का वरण करते हुए अपनी धरोहर मानक हिंदी को सौंपी। इसी को सहेज कर हिंदी राष्ट्र-निर्माण के उद्देश्य में औपनिवेशिकता को चुनौती देने में सक्षम हुई थी। 
यह कहना कि हिंदी कभी हिंदी प्रदेश कहे जाने वाले भूभाग की भाषा नहीं रही, जातीय चेतना के निर्माण प्रक्रिया से अनभिज्ञता जाहिर करता है। अगर बोलियों के होने से उस प्रदेश की जातीय भाषा को उस भूभाग की भाषा नहीं माना जाएगा तो फिर बांग्ला बंगाल की, मराठी महाराष्ट्र की और तमिल तमिलनाडु की भाषा कैसे कही जा सकेंगी? इन प्रदेशों में भी सामंती जनपद रहे हैं और उनमें व्यवहार में आने वाली बोलियां भी। व्यापार-वाणिज्य और तकनीक की उन्नति से मानव समुदाय करीब आते हैं, साथ में उनकी बोली-बानी। संपर्क की आवश्यकता ही अंतर-जनपदीय संपर्क माध्यम के विकास का कारण होती है। 
बृजराज जी का यह कहना कि हिंदी, हिंदी क्षेत्र की जातीय चेतना की अभिव्यक्ति में समर्थ नहीं, इतिहास और वर्तमान के तथ्यों और साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रमाणों के बिल्कुल विपरीत है। अगर अवधी जनपदीय चेतना अवधी बोली और भोजपुरी चेतना इसी बोली में संभव है तो फिर तुलसी और कबीर की संवेदना से राजस्थान से लेकर बिहार तक का विविध बोली-भाषी क्षेत्र सांस्कृतिक ऐक्य का अनुभव कैसे कर सका? यह सच है कि हिंदी को इस विशाल क्षेत्र की संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम इसकी बोलियों को इसके भीतर जगह देकर ही बनाया जा सकता है, पर यह भी सच है कि हिंदी के बगैर इन बोलियों को भी प्राणवायु नहीं मिल सकेगी। 
मानकीकरण, आधुनिक चेतना और प्रौद्योगिकीय तरक्की का लाभ लेने और एक व्यापक क्षेत्र की चिंतन परंपरा और सांस्कृतिक बोध से जुड़ने के लिए बोली क्षेत्र के जनसमुदाय को भी एक मानक भाषा की जरूरत होगी। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के फैलते जाल का प्रतिरोध क्या बुंदेली और भोजपुरी माध्यम की शिक्षा से हो सकेगा?
बृजराज जी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी का उल्लेख करते हुए लिखा है कि द्विवेदी जी को यह मलाल रहा कि उन्होंने बाणभट््ट की आत्मकथाभोजपुरी में नहीं लिखी। प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है कि द्विवेदीजी ने इसके बाद लिखी रचनाओं में भी भोजपुरी का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने कहा था भोजपुरी बड़ी मीठी भाषा है, पर इसे अपने घर में रखिए। 
यह कहना कि बोलियों को हिंदी से निकाल लेना पानी से बिजली निकालने की तरह है, सही नहीं है। हिंदी से बोलियों को निकालना दाल से नमक निकाल लेने के बराबर है। 
वास्तव में बोलियों को पहचान दिलाने के आंदोलनों के पीछे सत्ताच्युत राजनीतिकों, सिनेमा के कलाकारों और लेखकों की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएं हैं, जो इसके माध्यम से अपने लिए सत्ता, धन और यश का एक अनन्य क्षेत्र कायम करना चाहते हैं। इन बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांगों की परिणतियां आखिरकार अलग प्रदेशों के निर्माण के रूप में सामने आती हैं। मिथिलांचल और बोडोलैंड की मांगें इसका सबूत हैं। बोलियों की पहचान के ये आंदोलन बोलियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा और वैमनस्य को भी पैदा करने के लिए जिम्मेदार हैं। मैथिली भाषियों की संख्या में अंगिका वालों की तादाद शामिल करने और उनके साहित्य को मैथिली का बताने पर उनमें (अंगिका वालों में) भारी रोष है। भोजपुरी पर पटना में मगही और चंपारण में मैथिली को दबाने के आरोप लगते रहे हैं। 
दरअसल, हिंदी प्रदेश में ऐतिहासिक कारणों से जातीय आत्मचेतना का विकास बाधित रहा है। औपनिवेशिकता के कोप का भी सर्वाधिक शिकार यही बना है। जातिवाद, संप्रदायवाद से आक्रांत इस प्रदेश को हलकान करने के लिए भस्मासुर कौन पैदा कर रहा है, यह समझना मुश्किल नहीं। वैश्विक पूंजी के रथ के लिए रास्तों को हमवार बनाने वाले लोग अत्यंत कूटनीतिक रूप से जब यह कहते हैं हम रऊआ सब के भावना समझत बानीतब उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि जनाब टुलु, तोदा और कुरुख आदि बोलियां बोलने वालों की भावनाओं का क्या होगा? 
दरअसल, हम जिन्हें बोलियां कहते हैं वे छोटे-छोटे मानव समुदायों के परस्पर संपर्क और समेकन के फलस्वरूप अस्तित्व में आई वाक् समुदाय होती हैं। एक बोली में कई गणभाषाओं के तत्त्व शामिल होते हैं। हिंदी से अलग बोलियों को स्वतंत्र दर्जा देने की मांग सामंती संबंधों की ओर लौटने की मांग है। हां, यह सच है कि अब भी काफी लोग अनौपचारिक संदर्भों में इनका प्रयोग करते हैं। अगर इन्हें बचाने की चिंता सही परिप्रेक्ष्य में करनी है, तो इन्हें हिंदी के पाठ्यक्रम में स्थान देकर इनके साहित्य और कलारूपों का संरक्षण और इनके लिए आर्थिक सहायता देकर और रचनाकारों को पुरस्कृत कर ऐसा किया जा सकता है। पर उनके विकास के नाम पर घर बांटने का उपक्रम आत्मघाती होगा। 
आठवीं अनुसूची में शामिल होते ही बोलियां स्वतंत्र भाषा और उनके बोलने वाले हिंदीतर भाषाभाषी के रूप में गिने जाने लगते हैं। आज भी हिंदी के राजभाषा बने रहने का आधार मात्र उसका संख्याबल है। उसके संख्याबल-विहीन होते ही अंग्रेजी को राजभाषा   बनाने की मांग जोर पकड़ लेगी। ऐसे में बोलियों के पैरोकार किसके पक्ष में खड़े हैं, समझना मुश्किल नहीं। विखंडन के इस उत्साह में मूर्तिभंजकता का सुख कितना घातक सिद्ध होगा, इसे समझना होगा। प्रगति का तकाजा राष्ट्रीयता को कोसने में नहीं, सांस्कृतिक परंपरा के सशक्त प्रतीकों को समझने और उन्हें सुदृढ़ करने में है। वास्तव में बोलियों और भाषा के बीच स्वस्थ आदान-प्रदान और सहयोग से ही हिंदी के जातीय स्वरूप और प्रकारांतर से भारत की बहुजातीय राष्ट्रीयता की सुरक्षा की जा सकती है। 
अपने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्वरूप में हिंदी आज जहां एक गुरुतर दायित्व निभाने को तैयार है, एक उदार सांस्कृतिक रिक्थ की संवाहक भाषा के रूप में वैश्विक स्तर पर उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है। पत्रकारिता और जनसंचार माध्यमों की आवश्यकता ने हिंदी का एक नया रिश्ता उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं से गढ़ा है। वृहत संचार और मनोरंजन की एक सशक्त भाषा के रूप में हिंदी के उभार में उसकी जनपदीय बोलियों और उर्दू की अहम भूमिका है। हिंदी सिनेमा इसका समर्थ गवाह है। ऐसे परिदृश्य में हिंदी की बोलियों को उससे अलग करने का प्रयत्न ढाई चावल की खिचड़ी के उस सुख की तरह है, जिसमें आदमी सुस्वादु व्यंजनों का स्वाद भूल जाता है।


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