बुधवार, 11 जुलाई 2012

भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन

                                                                                                                विवेक कुमार सिंह

                भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा का मुद्दा आजादी के बाद से बहुत संवेदनशील रहा है । सैकड़ों भाषाओं और बोलियों के देश में प्रत्येक समुदाय की यह इच्छा रहती है कि उसकी भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिले तथा भाषा के विकास के लिए सरकारी अनुदान प्राप्त हो।भाषा की प्रतिष्ठा का प्रश्न अब धीरे-धीरे अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने पर टिक गया है । आजादी के बाद संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को मान्यता दी गयी थी जो धीरे-धीरे बढ़ कर 22 हो चुकी है । द हिन्दू अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक गृह मंत्रालय के पास अभी 38 और भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के प्रस्ताव/माँग विचाराधीन हैं । इस आलोक में पूरे भारतीय राजनीतिक तस्वीर पर नजर डालें तो पाते हैं कि भाषा को लेकर पूरे देश में कोई-न-कोई आंदोलन चल रहा है । भारतीय राजनीति में क्षेत्रीयता के उभार ने अस्मिता संघर्ष को भाषायी एकीकरण से अधिक गहराई से जोड़ दिया है ।  भाषा की राजनीति से अंतत: भारतीय भाषाओं के विकास का मुद्दा गौण होता जा रहा है और भाषायी कट्टरता का विस्तार होता जा रहा है । यहाँ नोट करने वाली बात यह है कि भारतीय भाषाओं के तमाम झगड़ों के बीच अंग्रजी निर्णायक की भूमिका में है । अंग्रेजी से किसी का विरोध नहीं है ।इन स्थितियों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के आवश्यकता है । 
    
      15 अगस्त 1947 की अर्द्धरात्रि भारतीय इतिहास के सबसे रोमांचक क्षणों में था जब पंडित जवाहरलाल नेहरु संसद भवन में कह रहे थे ''वर्षों पहले हमने नियति के साथ एक  मुलाकात तय की थी । अब वह कसम पूरी करने का वक्त आ गया है ।'' इस ऐतिहासिक वाक्य के साथ ही हमारी दासता की दो सौ वर्ष पुरानी जंजीरें टूट गयी । भारत एक स्वतंत्र,संगठित राष्ट्र के रुप में दुनिया के सामने खड़ा था । लंबे संघर्षों से मिली स्वतंत्रता कई विरोधाभासों को साथ लेकर आयी   थी । नेहरुजी ने अपना भाषण अंग्रेजी में दिया था । यहाँ सबसे बड़ा सवाल है कि नेहरु जी जैसे संघर्षशील नेता ने अंग्रेजी को माध्यम के रुप में क्यों चुना जिसे इस देश के अधिकांश लोग नहीं समझते थे । पवन कुमार वर्मा इस विरोधाभास पर लिखते हैं कि '' नेहरु जी के ऐतिहासिक भाषण को सुनने के लिए  पूरा देश बेताब था, जिनके पास कम-से-कम  रेडियो की सुविधा और अंगे्रजी का  ज्ञान था ।  अंग्रेजों द्वारा लाल बलुआ  पत्थर से निर्मित भव्य संसद भवन के मखमली कक्ष मे बैठे भारतीय जनता के प्रतिनिधि इस ऐतिहासिक मौके पर नेहरु का भाषण पूरे ध्यान से सुन रहे    थे । दुर्भाग्य से इनके अलावा नेहरु की वक्तृता  कलात्मक और सारगर्भित होने के बावजूद केवल  मुठ्ठी भर भारतवासियों को ही प्रेरित कर पायी । इनमें से ज्यादातर रेडियो सुनने वाले मध्यवर्गीय लोग थे । विशेष बात यह थी कि  ये लोग अंग्रेजी समझ सकते थे । जबकि ब्रिटिश शासन में वर्षों तक रहने के बावजूद बाकी बचे अधिकांश भारतवासियों के लिए  अंग्रेजी एक भाषा और जीवन शैली के प्रतीक के तौर पर विजातीय और असंप्रेषणीय ही थी ।'' नेहरुजी की भाषा संबंधी यही सोच भारतीय शासन की भाषा चिंतन पर हमेशा हावी रहा । भाषा संबंधी विवाद देश में चलते रहे किन्तु शासन की भाषा संबंधी सोच यथावत बनी रही ।

       शासन तंत्र को चलाने के लिए अंग्रेजों के द्वारा बनायी गयी संस्थाएं आजादी के बाद भी यथावत बनी रही । सेना का पदानुक्रम,पुलिस व्यवस्था,सिविल सेवा (जिसके नेहरुजी आलोचक थे ) सबकुछ थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ यथावत बने रहे । इन संस्थाओं को चलाने वाला प्रभुवर्ग जो उच्च मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करता था  और  अंग्रेजी भाषा के लिए जिसमें अपनी मातृभाषा को अधिकांश लोगों ने छोड़ रखा था,हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा का समर्थन दिल से नहीं कर सकता था । इस वर्ग को अच्छी तरह यह मालूम था कि पं नेहरु अंग्रेजी भाषा में ही स्वयं को सबसे स्वाभाविक महसूस करते हैं (नेहरुजी इस बात को स्वीकार भी करते थे) । इस वर्ग ने स्वाभाविक रुप से यह मान लिया  कि  देश की एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए आवश्यक सुशासन उनके  द्वारा ही संभव है जिसकी वाहक अंग्रेजी ही हो सकती है । वीर भारत तलवार नेहरुजी के भाषा संबंधी विरोधाभाषों पर लिखते हैं '' यहाँ सबसे मजेदार बात यह है कि  इस देश की सबसे प्रभावशाली  भाषा अंग्रेजी आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है । अंग्रेजी में संघ ही नहीं कई राज्यों के सम्पूर्ण कामकाज होते हैं । अंग्रेजी के प्रभाव को देखते हुए 1959 में इसे आठवीं अनुसूची में शामिल कर लेने का सुझाव दिया गया था तब अंग्रेजी के बड़े समर्थक जवाहरलाल नेहरु ने खुद इस सुझाव का विरोध करते हुए तर्क दिया था कि अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं है,इसलिए इसे आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा सकता । उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि इसे आठवीं अनुसूची में शामिल करने से हिन्दी को राजभाषा के रुप में स्थापित करने की राह में रुकावट आएगी और यह संविधान की आत्मा के खिलाफ होगा  लेकिन इन्हीं नेहरु ने 1963 में आफिसियल लैंग्वेज बिल पर बोलते हुए संसद में यह आश्वासन दिया कि जब तक गैर हिन्दी प्रान्तों की सहमति नहीं होगी ,अँग्रेजी को राजभाषा के उसके वर्तमान प्रयोग से हटाया नहीं जाएगा । अंग्रेजी संबंधी इस एक तथ्य से ही आठवीं अनुसूची की निस्सारता और अर्थहीनता पूरी तरह उजागर हो जाती है ।एक ऐसी भाषा जो आठवीं अनुसूची में है ही नहीं और वह भारतीय भाषा भी नहीं है , वह अकेले आठवीं अनुसूची की सभी भाषाओं से ऊपर है और उन पर भारी पड़ती है । तब फिर आठवीं अनुसूची का मतलब क्या हुआ ?'' (झारखंड के आदिवासियों के बीच,पृ 279) 

           स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तत्काल देश को भाषा से जुड़ी तीन प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ा । पहला था राजभाषा का सवाल,दूसरा भाषायी आधार पर राज्यों का गठन और तीसरा हिन्दी के साथ भारतीय भाषाओं का संबंध । संविधान निर्माताओं ने तमाम विवादों के बावजूद अनिवार्य राजभाषा और उसके विकास का मार्ग प्रसस्त कर दिया था । अनुच्छेद 351 में हिन्दी के विकास के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश तय कर दिए गए थे किन्तु जिस शासनतंत्र को राजभाषा और भारतीय भाषाओं  से संबंधित प्रावधानों को लागू करना था उसने कभी तत्परता नहीं दिखाई । दक्षिण भारतीय राज्यों में तीन भाषा फार्मूले के लिए आवश्यक हिन्दी किताबों और अनुदानों में भी इस प्रभुवर्ग ने सिरफुटौव्वल करना उचित नहीं समझा । परिणामस्वरुप समस्याएं उलझती चली गयीं । हाल ही में झारखंड की घटना इसका बड़ा अच्छा उदाहरण है । 14 जुलाई 2009 को द हिन्दू में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 2003 में झारखंड सरकार ने यह निर्णय लिया कि पहली से पाँचवीं कक्षा तक बच्चों को जनजातीय भाषा में छपी किताबें मुफ्त में मुहैय्या करायी जाएंगी । जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के द्वारा तैयार पांडुलिपि के आधार पर प्रकाशित पुस्तकें वर्ष 2004-05 तथा 2007-08 में वितरित किए गए । किन्तु इन पुस्तकों का कोई उपयोग नहीं हो सका । जनजातीय भाषा एवं लिपि जानने वाले न तो छात्र हैं और न ही शिक्षक ही । महालेखा परीक्षक ने एक करोड़ से ज्यादा की पुस्तकों की बर्बादी पर रोष जताया है । इस मामले के राजनीतिक निहितार्थों को समझा जा  सकता है । शासन की हड़बड़ी राजनीतिक हितों के लिए जनजातीय भाषा को लागू करना है न कि उसके विकास की समुचित व्यवस्था ।इस संबंध में पवन वर्मा की टिप्पणी महत्वपूर्ण है ''1947 के तुरन्त बाद देशभक्ति की भावनाओं के उफान व आजादी  के आंदोलन की उत्साहजनक स्मृतियों के माहौल में राष्ट्रभाषा का हित साधन करने वाले कदम उठाए जा  सकते थे । लेकिन,या तो इन कदमों की उपेक्षा की गई या उन्हें गंभीरता से लागू ही नहीं किया गया । कुछ वर्षों बाद भाषायी उग्रवाद का विस्फोट हुआ । इसे पहले ही शांत किया जा सकता था बशर्ते शुरु से इस समस्या पर कल्पनाशीलता के साथ ध्यान दिया जाता । इस पूरे मामले में कुटिल इरादों का खेल भी देखा जा सकता है  और यह तर्क भी दिया जा सकता है कि भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के मसले पर हुए टकराव से भी उन लोगों को लाभ हुआ जो अंग्रेजी को हटाने के  लक्ष्य से कभी सहमत नहीं थे ।''(भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान पृ 65)

      महात्मा गाँधी और कांग्रेस पार्टी की इच्छा थी कि भाषायी आधार पर राज्यों का गठन किया जाए । इसकी रुपरेखा 1917 के आस-पास तय कर ली गई थी । 1920 में स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो गई  जब कांग्रेस ने भाषायी आधार पर कांग्रेस कमिटियाँ गठित कर दीं । देश की बहुभाषिक स्थिति को देखते हुए कांग्रेस का अधिकांश कामकाज अंग्रेजी में चलता रहा । आजादी के बाद   धर्म के आधार पर देश के विभाजन ने नए बनते 'भारत' के सामने  जटिल समस्याएं खड़ी कर   दी । धर्म के आधार पर बँट चुके देश को महात्मा गाँधी और पं नेहरु भाषा के आधार पर पुन: बाँटने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे । इस बीच आंध्र प्रदेश की घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया ।

     अलग तेलुगू राज्य की माँग को लेकर तेलुगू भाषी क्षेत्रों में आंदोलन चल रहा था (वर्तमान आंध्र प्रदेश )। नेहरुजी भाषा के आधार पर प्रांत बनाने के खिलाफ थे । अलग तेलुगू राज्य के लिए पोट्टी श्रीरामालू ने आमरण अनसन आरंभ कर दिया । 58 दिनों के अनसन के बाद श्रीरामालू की मौत हो गई । उसकी मृत्यु ने आंदोलनकारियों को अनियंत्रित कर दिया । स्थिति को नियंत्रण से बाहर जाते देख नेहरुजी ने इस माँग को मान लिया । आंध्र प्रदेश के बाद सबसे विवादास्पद मुद्दा  तत्कालीन बंबई राज्य का था । गैर मराठी (गुजराती,पारसी) समुदाय का मानना था कि  बंबई में चुँकि सभी भाषा-भाषी लोग रहते हैं अत: इसे मराठी राज्य में शामिल न करके  नगर राज्य (सिटी स्टेट) के रुप में विकसित किया जाए । बाम्बे सिटिजन कमिटि ने 200 पृष्ठों की पुस्तिका नगर राज्य के समर्थन में प्रकाशित किया । मराठियों ने बांबे सिटिजन कमिटि की रिपोर्ट का खूब विरोध किया । यहाँ तक कि बंबई मामले पर मराठी और गुजराती कांग्रेस सांसदों में ही विभाजन हो गया । इससे भड़की हिंसा ने पूरे मुंबई को ठप्प कर दिया । अरबों की संपत्ति और दर्जनों लोगों की जान हिंसा में चली गई । अन्तत: 1954 में गठित राज्य पुनगर्ठन आयोग की संस्तुतियों के आधार पर भाषा के आधार पर राज्यों का गठन कर दिया गया (देखें रामचन्द्र गुहा,इंडिया आफ्टर गाँधी)।यहाँ यह नोट करना जरुरी है कि केन्द्र सरकार भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के पक्ष में नहीं थी । तेजी से बदलते तत्कालीन घटनाक्रम ने केन्द्र सरकार को इसके लिए बाध्य कर दिया था । भाषायी राज्य के केन्द्र में दक्षिण भारतीय राज्य और मुंबई छाए रहे । हिन्दी भाषी राज्य मूक दर्शक बने देखते रहे । इस प्रसंग का सबसे दुखद पहलू है कि भाषायी पहचान को लेकर जितने उग्र प्रदर्शन संबंधित राज्यों में हुए उसका रत्ती भर इच्छाशक्ति भी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास और अंग्रेजी के बरअक्स महत्व दिलाने में शासन चलाने वाले प्रभुवर्ग ने नहीं दिखाया ।

     भाषायी राज्यों के गठन के पीछे एक आदर्श की परिकल्पना की जा सकती थी - समान भाषा बोलने वाले लाखों  लोगों का समूह  जाति और धर्म से ऊपर उठ कर  भाषायी पहचान के आधर पर एक सूत्र में बँधेगा । जिसके रीति-रिवाज,आचार-व्यवहार और इतिहास के प्रति दृष्टिकोण एक समान होंगे ।इससे जाति और धर्म के आधार पर बँटे समाज को एकजुट करने में सहायता मिलेगी । विभिन्न भाषायी समूहों के  राज्य एक सशक्त केन्द्र के अधीन कार्य करेंगे जिससे गणतांत्रिक राज्य (फेडरल स्टेट ) की परिकल्पना साकार होगी । क्या यह अवधारणा केवल एक सपना भर है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है ! छ: दशकों के अनुभव से हम जानते हैं कि राज्यों के बीच पूर्ण सौहार्द्र की स्थिति कभी नहीं रही । कावेरी विवाद के राजनैतिक हल में भाषायी अस्मिता सदैव आड़े आती रही ।तमिलनाडु सरकार के स्कूलों में अनिवार्य रुप से तमिल पढ़ाने  की नीति को तमिलनाडु में रहने वाले मलयालम भाषी सर्वोच्च न्यायालय तक चुनौती देते रहे । भाषायी अस्मिता की लड़ाई में भारतीय भाषाएं एक दूसरे के खिलाफ तने हुई दिखायी देती है । इन विवादों में भाषाओं का अपना संसार अंग्रेजी के बरअक्स किस तरह सिमटता जा रहा है,इसका अंदाजा तथाकथित भाषा प्रेमियों को नहीं है ।

   जब भाषायी आधार पर राज्य बन रहे थे उस समय हिन्दी भाषी क्षेत्रों की क्या स्थिति थी,यह जानना भी रोचक होगा । हिन्दी जाति की गंभीरतापूर्वक  वकालत करने वाले डॉ रामविलास शर्मा हिन्दी प्रदेश की स्थिति बयान करते हुए लिखते हैं '' जिस समय सारे देश में भाषा के आधार पर प्रान्त अथवा राज्य निर्माण  की चर्चा चलती रही है ,हमारे प्रदेश में अनेक राज्यों को मिलाकर विशाल हिन्दी प्रदेश के गठन का आंदोलन नहीं चला । इसके विपरीत उत्तर प्रदेश को ही विभाजित करने की बात राजनीतिज्ञों में सुनाई दी ।अन्यत्र भाषाओं के आधार पर प्रान्त निर्माण करने से विशेषकर दक्षिण में छोटे राज्य का चित्र सामने आता है । किन्तु हिन्दीभाषियों को एक प्रदेश में संगठित करने से अनेक राज्यों में एक बड़ा राज्य बनता था । विभाजन के बदले स्पष्ट ही देश की एकता दृढ़ होती थी ।किन्तु इस ओर किसी राजनीतिक दल ने ध्यान नहीं दिया ।यह स्थिति हमारे प्रदेश में जातीय चेतना के अपेक्षाकृत  अभाव का परिणाम है ।''        
      
        हिन्दी प्रदेश में जातीय चेतना के अभाव की चर्चा करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं कि '' हिन्दी भाषी प्रदेश असाधारण रुप से विशाल है । उसमें किसी किसी भी भाषा क्षेत्र  की तुलना में बोलियों की संख्या अधिक है ।इस क्षेत्र में ब्रज,अवधी और मैथिली जेसी बोलियाँ हैं जिनका अपना विशाल साहित्य भंडार है । अनेक लोगों के मन में अब भी यह दुविधा है कि ये बोलियाँ हैं या हिन्दी से स्वतंत्र भाषाएं हैं ।यातायात के साधनों का समुचित विकास न होने और उद्योग धन्धों और व्यापार में हमारे प्रदेश के अनेक भागों के पिछड़े रहने से यह जातीय एकता का भाव विशृंखल सा रहा है । इन बोलियों की समस्या के अलावा हमारे यहाँ हिन्दी-उर्दू की विशेष समस्या रही है । बोलचाल की भाषा के दो शिष्ट या साहित्यिक रुप होने से जातीय गठन में बाधा पड़ती रही है,एक ही दिशा में बढ़ने के बदले सांस्कृतिक शक्तियाँ दो दिशाओं में बँट गयी थी।''(देखें भारत की भाषा समस्या) रामविलास शर्मा जिस समस्या की ओर इशारा कर रहे हैं वह वर्तमान सन्दर्भों में और स्पष्ट होती जा रही है । उत्तर प्रदेश को प्रशासनिक सुविधा के लिए बाँटने की माँग लगातार उठती रहती है । सवाल है कि किसी राज्य का आकार कितना बड़ा हो कि शासन ठीक ढंग से चल सके । इस बात का कोई सटीक पैमाना नहीं हो सकता ।सुशासन के लिए स्पष्ट सोच,दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और दूसरों की भावना के प्रति आदर न्यूनतम शर्तें  हैं ।अन्यथा राज्य का आकार जिले के जैसा हो या उत्तर प्रदेश जैसा क्या  फर्क  पड़ता है।

      हिन्दी भाषी प्रदेशों के विभाजन ने हिन्दी भाषा के भीतर विभिन्न अस्मिताओं के उभार की गति को तीव्र किया है ।आज गठबंधन सरकार के युग में अनेक राज्यों का गठन ,जिसमें अधिकांश अपनी क्षेत्रीय हितों के लिए तत्पर हैं,खतरनाक है। आज जब पर्यावरण का संकट गहरा रहा है ,नदियों के जल को बँटवारे को लेकर दो राज्यों के बीच गंभीर स्थितियाँ बन जाती हैं । आरक्षण की मांग को लेकर आए दिन रेल की पटरियों को रोक देने वाले समूहों को लेकर राज्य और केन्द्र सरकारें एक दूसरे का मुंह ताकते रह जातीं हैं कि कार्रवाई कौन करे । सांस्कृतिक अस्मिता के आधार पर बने अलग राज्यों का अनुभव तो यही है कि वे आपसी राजनीतिक गतिरोधों को बढ़ाते ही हैं कम नहीं करते । तिरुवल्लूवर की एक मूर्ति बंगलुरु में लगवाने में सरकार को अठारह वर्ष तक कन्नड़ जनता का मानमनौव्वल करना पड़ता है और बदले में सर्वजन (कन्नड़ संत कवि) की मूर्ति चेन्नई में लगाई जाती है ।(देखें द हिन्दू 14 अगस्त 2009) ऐसे माहौल में भाषायी अस्मिता के आधार पर हिन्दी प्रदेशों का विभाजन राजनीतिक और सामाजिक सौहार्द्र के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है ।भविष्य में गंगा और यमुना जैसे बारहमासी नदियों के जल बँटवारे के लिए विवाद हो तो आश्चर्य  नहीं करना   चाहिए ।

      बहुत से लोगों का मानना है कि  भोजपुरी,मैथिली,उराँव या फिर कोई भी बोली अगर आठवीं अनुसूची में शामिल कर ली जाती है  तो हिन्दी वाले इतना शोर क्यों मचाते हैं ? दरअसल आपत्ति आठवी अनुसूची में भाषाओं के शामिल करने पर नहीं है । आपत्ति उस सोच पर है जिसके तहत ऐसा किया जा रहा है ।एक ही भाषा की दो बोलियों को एक दूसरे के बरअक्स राजनीतिक हथियार के रुप में खड़ा करना क्या उचित है ? मैथिली के आठवीं अनुसूची में शामिल होते ही अलग मिथिलांचल राज्य की मांग जोर पकड़ती जा रही है ।आवश्यकता हो तो आप 28 के बजाय 100 राज्य बना दें आठवीं अनुसूची में 22 के बजाय भारत की 1652 भाषाओं को शामिल कर दें किन्तु भाषा की पूँछ पकड़ कर राज्य बनाने से भाषा और उसके बोलने वालों को कोई लाभ होता है या नहीं इसका मूल्यांकन जरुर करना चाहिए ।क्या आने वाले दिनों में मैथिली,भोजपुरी,मगही और अंगिका में स्कूली या उच्चतर शिक्षा दी जाएगी ।

      हिन्दी भाषी राज्यों पर नजर डालंे तो मानव विकास के सूचकांकों में भारत में सबसे पिछड़े  हुए राज्य हैं । सबसे कम साक्षरता,गरीबी,उच्च शिशु और मातृ मृत्युदर ,निम्न जीवन प्रत्याशा के साथ-साथ उद्योग-धंधों,सड़क बिजली जैसी आधारभूत संरचनाओं के अल्प विकास के कारण हिन्दी भाषी राज्य नए भारत के निर्माण में किस प्रकार योगदान कर सकते हैं यह विचारणीय प्रश्न है। अपने गृह राज्य में रोजगार के कम अवसरों के कारण  हिन्दी भाषी अन्य राज्यों में रोजगार के लिए पलायन करते हैं । इस पलायन के कारण कई प्रकार की सामाजिक विषमताएं उभर कर आती हैं  जिनका उपयोग राजनीतिक हितों को साधने में भी किया जाता है । हाल ही में रेलवे भर्ती की परीक्षा के समय हुई मारपीट की घटनाएं इन्हीं विषमताओं की ओर संकेत करती हैं । दूसरा उदाहरण पंजाब और हरियाणा है । रोजगार गारंटी योजना के कारण दैनिक मजदूरी के अवसर बिहार और उत्तर प्रदेश में बढ़ने के कारण दिहाड़ी मजदूरों का पलायन पंजाब-हरियाणा में कम हो गया है जिससे वहाँ पिछले दो वर्षों से धान की रोपाई में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है । वहां के किसान बिहारी मजदूरों पर बहुत ज्यादा आश्रित हो चुके थे ।
यहाँ यह सोचना लाजिमी नहीं है  कि मूलभूत राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर पर्दा डालने के लिए भाषा के मुद्दे को उछाला जाता है ।जब विदर्भ के किसान लगातार आत्महत्या कर रहे थे और बुंदेलखंड में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ था तभी मराठी बनाम हिन्दी भाषी का मसला शामने आया जिसने विदर्भ और बुन्देलखंड को स्वत: नेपथ्य में ढकेल दिया ।
     भाषायी अस्मिता के चौखटे से निकल कर देखें तो बृहत्तर स्तर पर देश की चुनौतियों को ठीक ढंग से रेखांकित किया जा सकता है । चुनौतियों की सही पहचान में ही उनके समाधान छिपे होते हैं ।
विवेक कुमार सिंह
उप प्रबंधक (राजभाषा), भारतीय स्टेट बैंक
फ्लैट नं 3/1/1,एसबीआई कांप्लेक्स,
गोल्फ क्लब रोड,टालीगंज
कोलकाता-700033

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